शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

संगिनी

जीवन  संवर  गया जीवन  में  जब से आई हो  
महक उठी है बगिया जब से दिल में समाई हो    


ये ज़मीन, ये आसमां, ये चाँद तारे सब तो वही हैं  
जाने क्यूँ नए-नए से लगते हैं जब से तुम आई हो


ख्वाबों  के  पर  लग  गए  परिंदों  की  तरह
ख्वाब को बनाने हकीकत तुम चली आई हो


मेरी संगिनी भी हो खूबसूरत,शोख,समर्पित  
ब्रह्मा  के  हाथों  रच मेरे ही निमित्त आई हो


क्या  दूँ,  क्या-क्या  कर  दूँ   तुम्हारे   लिए
हर पल सोचता रहता हूँ यूँ मुझे भा गयी हो


जल उठते हैं लोग देख हमारी प्रेममयी जोड़ी को
मुझ  अपूर्ण  को  परिपूर्ण  करने  चली  आई  हो


महक उठी है बगिया जब से दिल में समाई हो
जीवन  संवर  गया जीवन  में  जब से आई हो
                                               --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 
                           

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