सोमवार, 31 जनवरी 2011

पंजाब समस्या

सरेआम क़त्ल कर दिए जाते हैं लोग         
कातिलों  को  भाग  जाने देते हैं लोग          
            इस  मुल्क  की  ज़मीन  के  टुकड़े  चाहते हो
             क्या अपनी माँ के टुकड़े किया करते हैं लोग
                        सिख कौम का नाम बदनाम ना  करो गद्दारों
                        नानक गोविन्द भगत को पूजा करते हैं लोग
                                 पंजाब दिल है भारत का दोनों दूजे बिन अधूरे हैं     
                                 सिर्फ  दिल  को  लेकर  क्या  करोगे  तुम  लोग
                                            बंद  करो  कत्लेआम  दह्शतंगेज  वाक्यात 
                                            हमारे सब्र का पैमाना ना छलकाओ तुम लोग
                                                     हर क़त्ल पे शोकसभा बंद प्रोग्राम कागज़ी निंदा
                                                     कब  तक सिर्फ  जुबानी  विरोध करते रहेंगे हम 
                                                                कातिलों  को  भाग  जाने देते हैं लोग
                                                                सरेआम क़त्ल कर दिए जाते हैं लोग
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

काश

काश मैंने तुझे प्यार किया ना होता
काश मैंने तुझे दिल  दिया ना होता           
                 जला कर मेरे दिल को खाक कर दिया
                 काश मैंने तुझे दिल में बसाया न होता
                 मिला कोई तो मुझसे किनारा कर लिया
                 काश मैंने तुझे बावफा समझा ना होता 
                 तू तो एक छिछला घाट ही निकली 
                 काश तुझे दरिया समझा ना होता 
                 ताउम्र अपनी बरबादियों पे रोता रहूँगा
                 काश  तूने  मुझे  धोखा दिया ना होता
                 सैलाब की तरह आशियाने को बहा ले गयी
                 काश तेरे तिनके से आशियाँ बनाया न होता 
काश मैंने तुझे दिल दिया ना होता
काश मैंने तुझे प्यार किया ना होता        
                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव          

पैरोडी -१

( "चाँद सी महबूबा हो मेरी......." फ़िल्मी गीत पर आधारित )                     


बेवफा  महबूबा  हो  मेरी ऐसा मैंने कब सोचा था 
तुम बिल्कुल वैसी निकली जैसा मैंने ना सोचा था         

कहाँ वो कसमें हैं कहाँ वो शिकवे कहाँ वो दिलासे हैं 
एक  मूरत  सुरसा  की  है  दो  आँखें अनजाने से हैं
ऐसा भी रूप होगा तेरा कभी ऐसा मैंने ना सोचा था
तुम बिलकुल वैसी निकली जैसा मैंने ना सोचा था

मेरी खुशियाँ ही बांटी तूने मेरा गम बढ़ाना चाहा 
देखा ख्वाब सदा महलों का मेरा साथ ना देना चाहा
तू ऐसी निकलेगी ऐसा मैंने ख्वाबों में ना सोचा था
तुम बिल्कुल वैसी निकली जैसा मैंने ना सोचा था

अपनी  नैया  खेने को  मुझे पतवार बनाया तूने
साहिल आया तो मुझे समंदर में फेंक दिया तूने
तू ऐसा करेगी पतवार बनते  मैंने  ना सोचा था

तुम बिल्कुल वैसी निकली जैसा मैंने ना सोचा था
बेवफा महबूबा हो मेरी ऐसा मैंने कब सोचा था 
                                           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

इतनी सुन्दर

मैं नहीं  जानता तू  इतनी सुन्दर क्यों है
कोई मुझे बताये वो इतनी सुन्दर क्यूँ है 


             मेरी नज़रें ज़ब भी उसे देखती हैं
             दिल में मेरे हलचल होती क्यों है

             तेरे सौंदर्य को आत्मसात करना चाहा
             मेरी भावनाएं पर  इतनी  बेबस क्यूँ हैं


             मोम की सदृश मेरी भावनाएँ पिघल उठीं
             तू बाँकी चितवन मुझ पे  डालती क्यों है


             तेरा संगमरमरी बदन मेरी पूँजी है
             इसके  लिए  मुझे तरसाती क्यों है


             मैं  तुझे  तू  मुझे  प्राणाधिक  प्रिय हैं
             फिर अपने भाग्य पर हम रोते क्यों हैं


             हर बार पहले से अधिक तू सुन्दर दिखी है
             तू  ही बता दे राज  इसका छुपाती क्यों है


             तेरे  अप्रतिम  सौन्दर्य को देख सोचता हूँ
             तू मेरे नहीं किसी अन्य के भाग्य में क्यों है         


कोई मुझे बताये वो इतनी सुन्दर क्यूँ है 
मैं नहीं जानता  तू  इतनी सुन्दर क्यों है  
                                      ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
   

तथ्य

मैं जानना चाहता था
इतने दीर्घ अंतराल के बाद भी
मेरे दिल में कहीं तुम विद्यमान हो क्या ?
मैं अपने दिल से संबोधित हुआ
उत्तर की जगह सन्नाटा छाया रहा
विवश मैंने तुझे ढूँढने को 
कोना-कोना दिल का खँगाल डाला
पर तेरा अस्तित्व कहीं रक्त-रक्तिम भी ना मिला
मैं किंकर्तव्यविमूढ़  रह गया .
तभी मैंने अनुभव किया
कहीं से उभरता मद्धम-मद्धम स्वर
स्वरेन्द्रियों  को सतर्क कर सुना, 
ये स्वर था मेरे दिल का-
"मेरे गृह में उसके लिए किंचित भी जगह नहीं"
मैंने पूछा -
" तो तू उसके लिए बेचैन क्यूँ रहता है ?"
" बेचैन मैं नहीं तेरा शरीर रहता है-
उसके शरीर के लिए"
वास्तविकता समक्ष आते ही
मैं स्तंभित रह गया .
                                ---  संजय स्वरुप श्रीवास्तव
   
     

रविवार, 30 जनवरी 2011

कथ्य - १

ह्रदय में बेकली दबा कर होठों पर हंसी लाना, 

जलता हुआ अंतर ले कर, 

वाह्य रूप से 

शान्ति की खोज में भटकना         

कितना हास्यास्पद है ..........               

कोशिश

तेरी याद दिल से निकालना चाहूँ तो निकलता ही नहीं            
तुझे देखने  को  दिल चाहे तो तू कहीं दिखता ही नहीं             
                 कई दफा सोचा समेत लूँ तुझे गजलों की आगोश में
                 क्या करूँ तेरा बेपनाह हुस्न गजलों में समाता ही नहीं
मुद्दतों गुज़र गए उसकी इंतज़ार-ए-लज्ज़त  में खोये 
दूर तलक राहों में उसका साया नज़र आता ही नहीं
                 मिन्नतें की, फरियादें की उस खफा शोख से लेकिन
                 क्या करूँ वो शख्स मेरी ओर नज़र उठाता ही नहीं
यारों ज़रा सोचो वो कैसा अज़ीम शक्की शख्स है
दिलोजान ले कर भी मुझे अपना मानता ही नहीं
                शोख अगर मैं जानता प्यासा ही लौटना पड़ेगा तो
                खुदा कसम तेरी महफ़िल में कदम रखता ही नहीं
तुझे  देखने को  दिल चाहे तो तू कहीं दिखता ही नहीं 
तेरी याद दिल से निकालना चाहूँ तो निकलता ही नहीं
                                                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 


फ़ुटबाल

जब भी मैंने सोचा
अपनी ज़िन्दगी के बारे में
फ़ुटबाल सरीखी ही नज़र आई
ज़िन्दगी मेरी
आश्रित है ठोकरों पर
खिलाड़ियों के पावों की
लुढ़क रही है ज़िन्दगी
इधर से उधर, उधर से इधर
क्रीड़ा स्थली में
टीमें आती हैं
खेलती हैं इससे
विजयी होती हैं
चली जाती हैं
छोड़ जाती हैं इसे
अन्य टीमों के निमित्त 
जाने कब मुक्ति मिलेगी
इस चर्या से
कदाचित तब
जब ये वायु रिक्त हो जायेगी
मेरी जगह
किसी अन्य की ज़िन्दगी
आ जाएगी
मैदान में 
                 --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

कभी

कभी तू ज़हर कभी अमृत सी  लगे है          
कभी तू अपनी कभी परायी सी लगे है        
               मेरे  तसव्वुर में  खोई  तेरी  आँखें
               कभी जागती कभी सोयी सी लगे है
ये नज़रें मेरी नहीं और मेरी भी हैं
दिल में गडी मीठी छुरी सी लगे है        
                सोचा अब निकल जाऊं तेरी ज़िन्दगी से           
                हर  दफा  ये  बात  मुश्किल  सी  लगे है          
जानता  हूँ  मैं  कोई  नहीं  हूँ तेरा पर             
जाने क्यूँ तू अपनी-अपनी सी लगे है          
                तुझसे मिलने तेरे घर जाऊं या न जाऊं
                राहों पे कदम मेरे हिचकती सी लगे है          
शोख  तेरी  आँखों  में डूबने के बाद
प्यार वफ़ा की बातें झूठी सी लगे है          
                 कभी तू अपनी कभी परायी सी लगे है
                 कभी तू ज़हर  कभी अमृत सी लगे है  
                                                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव

सहारा

जिसे अँधेरे में भटकते
सहारा समझा था
जिस लाठी के सहारे टटोलते-टटोलते 
अँधेरे से उजाले में
जाना चाहा था
वो स्वयं एक टूटा-झूठा
सहारा था
जो स्वयं मेरी सहायता लेने के निमित्त
मेरी संसर्ग में आया था
उजाले की झलक पाते ही उसने 
मुझे अपने से सुदूर विलग
अँधेरे में झटक दिया
और
स्वयं जगमगाती मीनार की ओर
अग्रसर हो लिया
जिसकी चक्षुओं से अपने लिए मैंने
प्यार छलकते देखा था
उनके पीछे स्वार्थ का सागर
बल खा रहा था
जिसे
मैं समझ न पाया था
जिसे मैं सदैव से अपना समझता
आया वो तो
कभी मेरा रहा ही न था
मेरी बातों चाहतों इच्छाओं आवश्यकताओं
की महत्ता उसकी दृष्टि में
किंचित भी न थी
वो मुझे चलाना चाहता था
अपनी इच्छाओं के पथ पर
जिसका ह्रदय-सम्राट 
स्वयं को समझता रहा
वो मुझे भिखारी समझ प्यार 
देता रहा
मेरा प्यार चाहत विश्वास
आहत हो गया
उसके चेहरे से मिथ्या परदा
उठ गया             
                        --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


वो

ज़न्नत  नज़र  आया  नकाब  हटते  ही             
खुशबुओं का झोंका आया उसके आते ही           

            मालूम  नहीं  था  मेरी  मुकद्दर  में  वो  है
            अपनी तकदीर पे इतरा रहा हूँ उसे पाते ही 
            
             वो  इश्क  की  घाटी  का  बाशिंदा है शायद
             दिल में ख्याल आया उस हसीं को देखते ही
  
             खुदा ने गमकते फूलों से ही उसे बनाया है
             अहसास ये हुआ उसे आगोश में समोते ही


             हर इक शफे में फकत वो ही महफूज़ है 
             जाना है  मैंने किताब-ए-दिल खोलते ही


             दिल दिया है जान भी दे दूंगा एक दिन
             दिल से जिंदगी से ख्यालों से तेरे जाते ही


खुशबुओं का झोंका आया उसके आते ही 
ज़न्नत   नज़र   आया  नकाब  हटते  ही  
                                        --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

पहली बार

पहले-पहल जब तूने मुझे देखा होगा         
तेरी चिलमनें हया से झुक गयी होंगी

इज़हार-ए-मोहब्बत मुझ पर करना चाहा होगा
तुम्हारी लब  लेकिन  थरथराती रह गयी होंगी 

मेरी नज़रें उठी होंगी जब तुम्हारी तरफ
तेरी चिलमनें उनसे उलझी रह गई होंगी

पहले  पहल  जब  मैंने  तुझे  छुआ  होगा
सर से पाँव तलक तू सिहर-सिहर गयी होगी


पहले पहल जब तूने मुझे ख़त लिखा होगा
उंगलियाँ तेरी  हिचक में  कंपकंपाई होंगी


तेरे ख्वाबों ख्यालों में चला आया होऊंगा
जब  बेचैन हो  के  तू  मुझे  पुकारी होगी


पहले पहल जब मैं तुझे याद आया होऊंगा
तेरी आँखें  मेरी तसव्वुर में खो गयी होंगी


तेरी चिलमनें हया से झुक गयी होंगी
पहले-पहल जब  तूने मुझे देखा होगा
                                      --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  














एक दिन ऐसा आएगा

एक दिन ऐसा आएगा
तुझे मेरे बिना मुझे तेरे बिना
जीना पड़ेगा     
व्यतीत समय के कुक्ष-आहटों को
सुन-सुन चुपके-चुपके अश्रु
बहाना पड़ेगा
जब ठेस लगेगी तुम्हें तुम्हारे पति से
मुझे मेरी पत्नी से
तब हम एक दूजे को समीप
चाहने की मनसा किया करेंगे
तू मुझे मैं तुझे बाहुपाश में लिए
सांत्वना देने की कल्पना किया करेंगे
हम दोनों ही चाहेंगे
वापस लौट आना  इन सुनहले दिवसों में
जो हमारी असीम प्रेम की दर्शक हैं
पर अपनी असमर्थता हमें
रुलाती रहेगी
एक दिन ऐसा आएगा
मुझे तेरी तुझे मेरी सूरत देखने को
तड़पना पड़ेगा
बीती शामें प्यारी-प्यारी बातें
याद आ आ कर हर पल हमें
सताया करेंगी
एक दिन ऐसा आएगा
एक दूसरे को देख हमारे अधर 
कुछ कहने के प्रयत्न में
कंपकंपाते ही रह जायेंगे
तुम्हारे होठों, कपोलों,गालों को 
चूमने की उत्कट लालसा उठेगी
दिल में
पर उन्हें जबरन कुचलना पड़ेगा
तुम्हें अपनी बाजुओं में समाने को
जी चाहेगा परन्तु मैं मात्र 
आहें ही भर सकूँगा 
एक दिन ऐसा आएगा
हम एक दूसरे की संतानों को देख
सोचा करेंगे -
ये हम दोनों से क्यों नहीं हैं
एक निशा ऐसी आएगी 
मेरा तन मेरी पत्नी से
तेरा तन तेरे पति से
गुंथा होगा परन्तु
हम दोनों के मन एक दूसरे को ढूंढ कर
गुंथ जाया करेंगे
जब मेरी पत्नी, तुम्हारे पति परिश्रान्त
सो जाया करेंगे
हम सशरीर सुदूर होते हुए भी
एक दूसरे की कल्पनाओं में 
पहुँच जाया करेंगे

एक दिन ऐसा आएगा         
तुझे मेरे बिना मुझे तेरे बिना
जीना पड़ेगा -----
                  --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 





शनिवार, 29 जनवरी 2011

जुदाई

ऐसा लगता है तन मन जुदा होने का सिलसिला है ये  
वीरान  शहरा  में  गुम्ज़ुदा  होने  का सिलसिला है ये
             तन की वसीयत लिख दी गयी है मेरी गवाही में उन्हें
             तमाम मिल्कियत रकीब का होने का सिलसिला है ये 
                     अब तो मेरे ख्वाबों में भी न आयेंगे भूले से भी 
                     आँखों से ख्वाब जुदा होने का सिलसिला है ये
                                 वो चाहेंगे कि उम्र भर उन्हें मैं चाहता ही रहूँ
                                 चाहतों की रुसवाइयों का ही सिलसिला है ये
                                          तुम तसल्ली देते हो कि मैं सिर्फ तुम्हारा हूँ
                                          दीवाने को भरमाने का हसीं सिलसिला है ये
                                          हम  भी  समझते  हैं तुम मुझे  कितना चाहते हो
                                          चुप हैं, सिलसिला ज़ारी रखने का सिलसिला है ये 
                                 उन्हें अपनी ज़िन्दगी बनाने की तमन्ना है दिल में  
                                 मौत  का  सामाँ  ज़मा  करने  का सिलसिला है ये  
                     चेहरा उदास, आँखे ख़ुशी से चमकती हैं तुम्हारी
                     मेरी आँखों को दगा देने का कैसा सिलसिला है ये
             कमबख्त मौत भी नहीं आती तेरी जुदाई में
             या खुदा तेरी सितम का कैसा सिलसिला है ये 
वीरान  शहरा  में  गुम्ज़ुदा  होने  का सिलसिला है ये                                  
ऐसा लगता है तन मन जुदा होने का सिलसिला है ये
                                           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

लडकियाँ

क्या खूब चकमा देती हैं ये लडकियाँ भी   
इनसे तो कहीं बेहतर हैं ये तनहाइयाँ भी    
            दिल ले के भूल जाना  फितरत है  इनकी 
            सहनी पड़ती हैं इश्क  को  बेवफ़ाइयन भी     
            वादा  कर  के  भी ये वक़्त पे आती  ही नहीं 
            करनी पड़ती हैं पहरों इनकी इन्त्जारियां भी
            इश्क के ज़ज्बे को  भड़का कर तडपाती हैं इतना
            कि  रो  पड़ती  हैं शिद्दत-ए-दर्द से खामोशियाँ भी  
            इन्हें  पाने  की  तमन्ना  भी  न  कर  दिल  में
            कोशिशें होंगी नाकाम और होंगी रुस्वाइयाँ भी   
            अंग-अंग से फूटती रहती हैं खुशियाँ शादी की
            गिनाती रहती हैं अपने प्यार की मजबूरियाँ भी
            जिन लबों को चूमा जिस बदन को सहलाया मैंने
            उन पर  फिरेंगी अब  किसी गैर की हथेलियाँ भी 
            नामुमकिन है छू भी सकना उसे बाद में लेकिन
            देती रहती है मुझे मेरी होने की तसल्लियाँ भी 
            तमाम उम्र चुभेंगी किरचें टूटे शीशा-ए-तमन्ना की
            ख्वाबों की अंजुमन में होंगी हुश्न की रानाइयाँ भी 
            अब अकेला हूँ इस भरी दुनियां में मैं
            गम है साथ मेरे और हैं उदासियाँ भी 
इनसे तो कहीं बेहतर हैं ये तनहाइयाँ भी 
क्या खूब चकमा देती हैं ये लडकियाँ भी  
                                       ----- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  
 
 
        

वफ़ा

पल भर का भी साथ बहुत होता है          
ज़िन्दगी भर कौन साथ निभाता है 
             क्यूँ करते हो उम्मीद किसी से वफ़ा की
             वफ़ा का नाम ही यहाँ अब कौन जानता है    
क्यूँ इन हसीनाओं पे करते हो ऐतबार
खुदगर्ज़ बेवफा हैं ये ज़माना जानता है   
             चुनते रहोगे ताउम्र टुकड़े टूटे दिल के  
             इनकी शोहबत का यही नतीजा होता है
क्यों सोचते हो वो सिर्फ तेरी माशूका है
ये फक्र तमाम लोगों को हासिल होता है
             छोडो देखना ख्वाब इन्हें हमसफ़र बनाने का
             तुम्हारी किस्मत में  सिर्फ भटकना लिखा है
तू भले ही फिरे अंग-अंग में समाये मोहब्बत 
इनके सीने में दिल की जगह पत्थर होता है
             पहले उकसाना फिर तड़पता छोड़ देना
             ये तो इनकी फितरत में शामिल होता है
क्या पाओगे तुम खून-ए-दिल बहाने से
इससे तो इन्हें पुरलुत्फ हासिल होता है
             ज़िन्दगी भर कौन साथ निभाता है 
             पल भर का भी साथ बहुत होता है     
                                               --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव          

            


         

ग़मों की बारिश

ग़मों की बारिश लगातार होती रही        
मैं रोता रहा वो देख कर हँसती रही     
           ज़ख्म  भरने  की उम्मीद में गया था मैं
           कुरेद दिया ज़ख्म उसने टीसें उठती रहीं
           बड़ी  आरज़ू  से  गया था  महफ़िल  में उसके
           शीशा-ए-दिल पे पत्थरों की बारिश होती रही
           नज़र  से  नज़र  मिलाया  था मय की उम्मीद में
           मय की जगह उदास नज़रें ख़ामोशी उड़ेलती रहीं
           हालत है क्या मेरी और क्या सहना  है
           सोच-सोच  आँखें  तन्हाई में रोती रहीं
           कोई नहीं है मेरा सब हैं बेगाने बेवफा
           जान  कर  ये  रूह मेरी सिसकती रही
मैं रोता रहा वो देख कर हँसती रही
ग़मों की बारिश लगातार होती रही       
                                    --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव        
 
           


आगमन

नशा  सा  हो रहा है  आँखों  में  उसकी  झांकने से   
खुशनुमां हो रहा है जीवन, जीवन में उसके आने से              
         नुमायाँ हो रहा है ज़न्नत आँचल उसका ढलकने से
         गुमान  हो रहा है  बाजुओं में  उसके  आ समाने से
                    प्यार है क्या चीज़  अब तलक नहीं जानता था मैं
                    प्यार को समझा है बखूबी सामिप्य उसका पाने से 
                                 प्रेम की देवी  कहूँ उसे या कहूँ  शोखियों की मलिका
                                 प्रेम औ' शोख अदाएं लूट लायी है खुदा के खजाने से
                                             तमाम कोशिशें कर डालीं खफा उससे रह लेने की     
                                             बेबस हो गया हूँ  खुद को उसके दिल में समाने से 
                                                          अब जब कि बन चुकी है वो मेरे दिल की धड़कन
                                                          तो कैसे रोक दूं उसे मैं अपने  दिल में धड़कने से    
नशा  सा  हो  रहा  है  आँखों  में उसकी  झांकने से   
खुशनुमां हो रहा है जीवन, जीवन में उसके आने से 
                                                                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव      

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

अश्रु

अश्रु  आते हैं छलक जब तुम्हारी नयनों में
लगता है चुभो रहा है नश्तर कोई सीने में    

            अधर कंपकंपाते हैं पीने को आंसू तुम्हारी नयनों के
            पर ऐसा लिखा नहीं ईश्वर ने मेरी हस्त लकीरों में            

सताता हूँ तुम्हें अश्रुओं का सबब हूँ मैं तुम्हारी नयनों के
मनाता हूँ मैं मुझे भेज दे ईश्वर दूर तुमसे ज़हन्नुम में            

             मत बर्बाद करो आँखों को ला के इनमें आंसुओं को
             आँखें ये धरोहर हैं तुम्हारे पास मेरी अमानत में            

अपने ही आँचल को भिगोती रहोगी रो-रो के
रुसवाई के सिवा और क्या पाओगी   रोने में            

            अश्रु  आते हैं छलक जब तुम्हारी नयनों में
             लगता है चुभो रहा है नश्तर कोई सीने में                      
                                                     ----- संजय स्वरुप श्रीवास्तव           

            

शुभकामना

तुम्हें मिलेंगी तुम्हारे
नूतन प्रियजनों की
नूतन लच्छेदार शुभकामनायें
ढ़ेर में
मैं प्राचीन खँडहर
बेकार हो चुका हूँ
मेरी बातें असंगत
अर्थहीन हो चुकी हैं
तुम्हारे लिए
ऐसे में मैं क्या दूं क्या कहूं तुम्हे
नववर्षारंभ में
फिर
मेरे कहने
मेरे चाहने से
तुम नहीं पा सकोगे
सफलता, स्वस्थता औ' प्रसन्नता
वर्तमान वर्ष में
ऐसा होगा मात्र
तुम्हारे चाहने से
तुम्हारे प्रयत्न से             
               ------- संजय स्वरुप श्रीवास्तव



कवि का भाग्य

सावधान !!!
समय रहते चेतो
क्यों प्राण देते हो अपने
इस मक्रजाल में फंस कर 
क्या
तुम्हारी इच्छा तड़प-तड़प कर
मरने की है
ओह...... अच्छा.......
तो तुम भावुक पुरुष हो
तब तो कवि भी होगे
ठीक है तुम मर सकते हो
क्योंकि
तुम्हारे भाग्य में लिखा ही है
ठोकरें खाना औ" 
मक्रजाल में फंस
तड़प-तड़प के प्राणहीन होना
तुम्हारी मौत से सबक लेंगे
खुशनुमा ख्वाबों को पालने वाले
औ'
स्वप्न लोक में जीने को इच्छुक लोग
                       ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव

प्रतिद्वंदी

अँखियाँ की कोरों पे आ
अश्रुबिंदु थम गए
जब जाते-जाते दूर मुझसे
अकस्मात् वो ठिठक गए
सोचा-
वापस आयेंगे वो पास मेरे
पर बोध भ्रम टूटा
पलकों की बाँध पुनः तोड़
अश्रुधारा
प्रवाहित हो चली प्रबल वेग से
जब वो बातें करने लगे
नयनों से नयन मिला
मुस्कुरा के
मेरे प्रतिद्वंदी से
पुकारने को तत्पर अधर
थरथरा के रह गए
बेबसी के आलम में रद-पुट
रद पंक्तियों में पिस के रह गए
                         --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


तादात्म्य

करूँ क्या मैं
तादात्म्य स्थापित करूँ कैसे मैं
अपने औ' औरों के मध्य
स्वयं को परिवर्तित करूँ
या
समाज को ही बदल डालूं
पर
राह है दुरूह दोनों ही मेरे लिए
क्योंकि
भुजाओं में मेरी शक्ति नहीं
समाज को बदलने के लिए
आत्मविवेचना व आत्मविश्वास नहीं
स्वयं को परिवर्तित करने के लिए
तो फिर
क्या करूँ मैं

तादात्म्य स्थापित करूँ कैसे मैं
अपने औ' औरों के मध्य 
                           ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 


फिक्र

फिक्र क्यों करूँ मैं हर किसी का
ज़िन्दगी में दखल नहीं किसी का
               मान करूँ क्यों मैं उसका
               मान पाया नहीं मैंने जिसका
प्यार ही प्यार है दिल में मेरे
प्यार ही प्यार है आँचल में उसके
               फिर प्यार क्यों न पा सकी वो मेरा
               सामिप्य क्यों पा न सका मैं उसका 
कृपणता दर्शाई जो उसने प्यार देने में
कृपण क्यों ना बनूँ मैं भी प्यार देने में
               तमन्ना थी प्यार पूर दूं उसके आँचल में 
               वो भी  प्यार बरसा दे मेरे जीवन में  
पर ख्वाब तो ख्वाब ही रह जाता है
हकीकत में वो कहाँ बदलता है 
               हाँ कभी-कभी ऐसा भी होता है 
               हकीकत ख्वाब में बदल जाता है 
वो ख्वाब ही थी जो ख्वाब ही रह गयी 
मैं एक हकीकत हो के भी ख्वाब बन गया 
                               --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव



तृष्णा

सभी को प्यार मैं बांटता रहा
मंजिलों तक उन्हें पहुंचता रहा
          पर प्यार की तलाश में स्वयं भटकता रहा
          बालुका प्रदेश में मंजिल तलाशता रहा
नारी-घड़ों में प्यार हेतु झांकता रहा
साथ ही असफलता पे खींझता रहा
          घट रूप में तुम अपवाद लगी
          हिय तलहटी में प्रेम लिए लगी
चुन-चुन समर्पण घट में डालता रहा
प्रतीक्षा प्यार उतराने की करता रहा
          समर्पण चुकने का भय प्रेम को सालता रहा
          अतृप्त रहने का भय हिय को बींधता रहा

सभी को प्यार मैं बांटता रहा
मंजिलों तक उन्हें पहुंचता रहा
                                                 ----- संजय स्वरुप श्रीवास्तव




परिवर्तन

आँखों से छलकती थी
मदिरा प्यार की
दिल में मचलती थी
उत्तांग तरंगें प्यार की
बाहुपाशों में आवेश थी
अतृप्त वासना की
पलकों में होती थी
मूक निमंत्रण अभिसार की
संगमरमरी बदन को चाहत थी
सुपुष्ट गर्दभांग की
जुदाई एक पल भी न थी
स्वीकार्य जिन्हें मेरे शरीर की
जाने क्यों....
उन्हीं की आँखों में लेती हैं
करवटें
सागर अथाह नफरत की
असह्य है अब उनके तन को
स्पर्श
मेरी बेताब उँगलियों की
                           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

अपेक्षा

ख्वाबों में आइये
ख्यालों में आइये
छुप के धड़कनों में मुस्कुराइए
              आँखों में आइये
              बाँहों में आइये
              थरथराते लबों से अभिसार गीत गुनगुनाइए
उदासियों में आइये
तन्हाइयों में आइये
वीरानी दिल की आबाद कीजिये
              रातों में आइये
              दिनों में आइये
              मासूमी अदाओं से शर्माइये
जब भी आप चाहिए
बेधड़क चले आइये
सुलगते अरमानों में मचलिये
               पर --
मौत जब आये
आप न आइये
सुकून से प्राणहीन मुझे होने दीजिये
                                      --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव



"मैं"

"मैं"
दाल से टूटा
एक पत्ता
भटक रहा हूँ तलाश में
प्यार की
देखता हूँ लबालब दरिया सभी में
प्यार की
जाता हूँ पास पाने को प्यार
तो
आभास होता है ये मृगतृष्णा है
प्यार की
मैं
हूँ एक व्यक्ति अवांछनीय इस
समाज का
मैं
हूँ आवारा बदचलन लोफर अकर्मण्य
मिला है मुझे तोहफा ये
समाज का
                       ----- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


नारी

नारी
अब
एक अनबूझ पहेली
नहीं
कौन कहता है ?
नारी पुरुष को प्यार करती है
वो प्यार नहीं
पुरुष को बर्बाद करती है
धोखा, फरेब, बेशर्मी, बेवफाई
मिथ्या अपनत्व औ" बेहयाई
पहचान हैं
नारी के प्यार के
वो
ले जाती है
स्वप्निल प्रेम की बुलंदियों तक
ला पटकती है
हताशा-घुटन की अतल कंदराओं में
                             --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

वादा

मुद्दतों बाद आज
मिलने का करार है उनसे
पर,
आशा छीण होती जा रही है
मिलन की
धड़कन मद्धम होती जा रही है
दिल की
क्योंकि
मेघपुष्प-
थमने के आसार नज़र नहीं आते
वर्षात का अटूट सिलसिला ज़ारी है
साथ ही
सजनी की
सलोनी सूरत दर्शन को
दिल की तड़पन ज़ारी है
अब तो
अम्बर तले उनको सीने से लगा के
भीगने की स्पृहा जारी है
साथ ही
जुल्मी ज़माने की
इच्छा दमन चक्र
जारी है
             ------ संजय स्वरुप श्रीवास्तव

काश

काश ......
मैं अंधा होता---
          तो
          मेरे नयन
          न उलझते
          उसकी
          सपनों में खोई
          अमिया की फाँक
          सी
          सीपिया नयनों 
          से

काश ......
मैं अंधा होता---
          तो
          चक्षु-पथ न पाती 
          वो मेरे 
          दिल में समाने
          को
काश ......
मैं अंधा होता---
          तो
          पलकें न बिछ्तीं 
          पहरों मेरी
          उसकी प्रतीक्षा
          में
काश ......
मैं अंधा होता

                   ----- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

कौन ???

नयनों
की
सीमा में
इठलाती आई,
दृगों 
की राह
दिल में
समाई,
बाहों में मेरी
शर्माती आई
सुशुप्त भावों
को
हिलोर गई !
        कौन  ??
        पता नहीं......... !!
                   ------ संजय स्वरुप श्रीवास्तव
                          

आधुनिक प्रेम

            आधुनिक प्रेम
            एक आंखमिचौनी 
            औरत-
            चिंता में रहती है,
            अपना
            जीवन बीमा करने की.
            पुरुष-
            ढूंढता है मांसलता 
            औरत का 
            प्रेम के परदे में 
                               -----    संजय स्वरुप श्रीवास्तव 
                                               ( जीवन की प्रथम कविता, ०५ जनवरी, 1984 )

कविता और कवि

           (१)

शब्द और अर्थ नहीं है कविता
सबसे सुन्दर सपना है
सबसे अच्छे आदमी का

         (2)

जो लिखते हैं कवितायें
और करते हैं प्यार
वो धरती को थोड़ा
और चौड़ा करते हैं
थोड़ा और गहरा
थोड़ा और नम 

लिखना क्यों ??????????

.लिखने की एक विशेष मानसिक स्थिति होती है, उस समय मन में कुछ ऐसी उमंग सी उठती है, ह्रदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति सी आती है, मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग सा उत्पन्न होता है कि लेख लिखना ही पड़ता है ... उस समय विषय की चिंता नहीं रहती. कोई भी विषय हो उसमें हम अपने ह्रदय के आवेग को भर ही देते हैं .... मन के भाव ही तो यथार्थ वस्तु हैं, विषय नहीं...........