गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

एक प्रश्न

एक प्रश्न 
मथ रहा है मेरे मन को
कुछ दिनों से
उथल-पुथल मची हुई है
मस्तिष्क में
कुछ दिनों से
चिंतन करते-करते
जब असहाय महसूस किया
स्वयं को मैंने तो
सोचा
क्यूँ न अपनी परम मित्र
अपनी कविताओं को
सुनाऊं अपनी परेशानी
जो सदैव मुझे
चैन,सांत्वना देती आई हैं
प्यार करती आई हैं
जीवन की प्रत्येक परेशानी में
जीवन के प्रत्येक दुःख में  
जीवन के प्रत्येक विछोह में  
इसी कारण आज
लेखनी ले कर आ बैठा
मिलने अपनी कविता से
अपना दुखड़ा
यूँ सुनाया कविता से --
क्यूँ नारी समझती हैं
हर पुरुष मात्र शरीर
का भूखा है उसके ??
प्यार में थोडा आगे बढ़ो
कुछ
उसके रूप की प्रशंसा करो
कुछ 
तो समझती है
बदन चाहता है ये मेरा
काबिल नहीं इसका प्यार मेरा...
मैंने कहा अपनी कविता से --
ऐ सखी !!!
जब प्यार किसी से होता है
जब प्यार कोई स्वीकारता है
तो सबसे पहले
दोनों की आत्माएं
करती हैं स्पर्श एक दूजे को
कर लेती हैं समाहित एक दूजे को
विचार छू लेते हैं
एक दूसरे के अनछुए मन को
जोड़ देती हैं मस्तिष्क तरंगें
दोनों की भावनाओं को
स्वीकारते ही 
एक दूसरे का प्यार 
हो जाता है मिलन
दो आत्माओं का
दो सोचों का
दो भावनाओं का
दो कल्पनाओं का
दो सपनों का
दो विचारों का
इसके उपरांत -
आ भी गई यदि बात कभी
तन-मिलन की
तो क्यों चौकन्ना हो जाता है
इंसान ??
क्यों चौंक उठता है 
इंसान ??
ऐसा लगने लगता है
जैसे 
होने जा रहा है कोई अपराध
होने जा रहा है कोई महापाप
आसमां गिर पड़ेगा
धरती फट पड़ेगी
दोनों अपवित्र हो जायेंगे
मैंने कहा कविता से --
शरीर तो मिल जाता है
चांदी के चंद सिक्कों के बदले
बाज़ार में
लेकिन आत्मा, प्यार, भावना 
नहीं मिलते किसी के भी बदले
बाज़ार में 
शरीर तो छण-भंगुर है 
नष्ट हो जायेगा 
भष्म हो जायेगा
आत्मा तो अमर है 
भावनाएं तो शाश्वत हैं 
इनके मिलने पर
परहेज नहीं जब
ऐतराज़ नहीं जब
शरीर के मिलने पर
ऐतराज़ क्यों तब
परहेज़ क्यों तब
हंगामा क्यों तब
ये नाटक क्यों तब
दूषित होते हैं यदि
तन-मिलाप पर
तो क्यूँ नहीं दूषित होते 
भावना-मिलाप पर
सोच-मिलाप पर
आत्मा-मिलाप पर ???
क्या इसका निकाला जाय
ये निष्कर्ष कि
आत्मा नहीं सर्वोच्च है शरीर
आत्मा नहीं मूल्यवान है शरीर ??
मेरी कविता ने कहा --
मेरे प्रिय सखे  !!!
खेद है
मैं नहीं दे सकती
उत्तर
आज तुम्हारे इन प्रश्नों का
चूँकि
मैं स्त्रीलिंग हूँ
यदि झूठ बोलती हूँ तो
तुम कहोगे स्त्री का पक्ष लिया
यदि सत्य बोलती हूँ तो
मेरी सहेलियां कहेंगी
अपने वर्ग से विद्रोह किया
आशा है मुझे क्षमा करोगे
मुझे समझ सकोगे
मैंने एक आह भरी
और कहा --
धन्यबाद सखी,
मुझे मेरा उत्तर मिल गया
तुमने कुछ न कह कर भी
बहुत कुछ कह दिया .......
                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  


  


2 टिप्‍पणियां:

  1. Sanjay ji...aapne purush kee ek samasya ko anokhe dhang se kavita me piro diya hai....aap sadhuvaad ke patra hain....
    शरीर तो मिल जाता है

    चांदी के चंद सिक्कों के बदले
    बाज़ार में
    लेकिन आत्मा, प्यार, भावना
    नहीं मिलते किसी के भी बदले
    बाज़ार में
    शरीर तो छण-भंगुर है
    नष्ट हो जायेगा
    भष्म हो जायेगा
    आत्मा तो अमर है
    भावनाएं तो शाश्वत हैं
    इनके मिलने पर
    परहेज नहीं जब
    ऐतराज़ नहीं जब
    शरीर के मिलने पर
    ऐतराज़ क्यों तब
    परहेज़ क्यों तब
    हंगामा क्यों तब
    ये नाटक क्यों तब
    दूषित होते हैं यदि
    तन-मिलाप पर
    तो क्यूँ नहीं दूषित होते
    भावना-मिलाप पर
    सोच-मिलाप पर
    आत्मा-मिलाप पर ???
    waah kya sachchi baat kahi hai aap ne....

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं स्त्रीलिंग हूँ
    यदि झूठ बोलती हूँ तो
    तुम कहोगे स्त्री का पक्ष लिया
    यदि सत्य बोलती हूँ तो
    मेरी सहेलियां कहेंगी
    अपने वर्ग से विद्रोह किया
    आशा है मुझे क्षमा करोगे
    मुझे समझ सकोगे

    kavita ka zawab anokhe dhang se rakha gaya hai ...badhai....

    जवाब देंहटाएं