सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल लिखता हूँ

जब तुम मेरा दिल दुखाती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ     
जब तुम मुझे इश्क करती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ    

                चाँदनी रातों की मदमस्त फिज़ाओं  में मेरे पास
                जब तुम कहीं नहीं होती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ    

कंपकंपाती  सर्दियों  की  ठिठुरती  रातों  में  जब
बदन तेरा नहीं होता बाँहों में तो ग़ज़ल लिखता हूँ   

                कितना  इन्तज़ार करूँ कब तक इन्तज़ार करूँ तेरा
                जब तुम वादा नहीं निभाती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ   

मेरी रातें गमक उठती हैं  तेरी ख़ुशबू-ए-बदन से 
ख़्वाब में तुम जब आती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ   

                 कितनी लज्ज़त कितनी  बेखुदी  है  तेरी यादों में    
                 तुम याद जब मुझे आती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ   

जब तुम मुझे इश्क करती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ  
जब तुम मेरा दिल दुखाती हो तो ग़ज़ल लिखता हूँ    
                                                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    

कथ्य-८

भ्रम के जाल में फँसे

छटपटाते हुए भी   

हमें जो सुख मिलता है --

उस भ्रम का झूठ तो हम 

सहन कर सकते हैं  

सच्चाई नहीं ......     

खुदा को सलाम

तुझे  जिसने  बनाया  उस खुदा को सलाम     
जिस-जिस से बनी तू उस-उस को सलाम    

ज़िन्दगी  सँवर गयी है ज़िन्दगी में तेरे आने से
जिस पल ज़िन्दगी में आई उस पल को सलाम

ऐसी हो वैसी हो ये हो वो हो मेरी हमसफ़र
सब  है तुझमें महज़बीं तेरे रूप को सलाम   

कितनी कुर्बानियाँ  दी  हैं तुमने मेरी खातिर
दिलरूबे तेरी बेहिसाब कुर्बानियों को सलाम   

जिस-जिस से बनी तू उस-उस को सलाम 
तुझे  जिसने  बनाया उस खुदा को सलाम      
                                         --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    

क्या है

दुनिया में  मेरे  लिए रखा क्या है 
अब उसका मुझसे वास्ता क्या है     
             हौसला  जुटा  रहा  हूँ   भूल  जाऊं 
             उस बेदर्द का पता ठिकाना क्या है 

             मन बोझल है उसके दिए दर्द से
             आखिर  इस दर्द की दवा क्या है 

             कुछ  नहीं  होना  है हासिल तुझसे     
             फिर हमारा रिश्ता चुभोता क्या है     

             तूने  हाँ  भी  कहा  तूने ना भी कहा 
             तेरी बातों में हकीकत कहाँ क्या है 
अब उसका मुझसे वास्ता क्या है      
दुनिया में  मेरे  लिए रखा क्या है      
                                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    

उफ़

जी चाहता है आज खूब रोऊँ मैं    
गम-ए-अश्कों से आँखें धोउं मैं

खुदाया रहम कर अपने बन्दे पे
उफ़ इतना गम कैसे छुपाऊ  मैं 

कोयले से लिखी तूने तकदीर मेरी 
बता  उसका  प्यार  कैसे  पाऊं  मैं  

जिसे चाहा वो नहीं चाहता मुझे    
आह  कैसे  जिंदा  रहूँगा अब मैं   

कोई  नहीं  करता  मोहब्बत मुझसे 
खुदाया क्या तेरे पास चला आऊं मैं     

गम-ए-अश्कों से आँखें धोउं मैं
जी चाहता है आज खूब रोऊँ मैं 
                           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   



गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

दहक रहा

सुलग रहा तन मेरा आ जा सनम   
दहक रहा मन मेरा आ जा सनम   

इक आग लगी हैदिल में तेरे चाह की
अपने  इश्क  से  इसे बुझा जा सनम    

आँसू  बहते  ही  जाते  हैं  तेरी याद में
अपनी आँचल में इसे संजो जा सनम  

फ़ना ना हो जाऊं कहीं भूखा ही मैं   
भूख मेरे मन की मिटा जा सनम  

बेचैन  हैं  थिरकने  को  तेरे  बदन पे
उँगलियों को एक मौका दे जा सनम     

दहक  रहा मन मेरा आ जा सनम   
सुलग रहा तन मेरा आ जा सनम
                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव       

कथ्य - ७

उड़ने के लिए

आकाश खाली है                    

पर हर कोई 

आकाश छू तो नहीं सकता  .....

कैसे कह दूं

कैसे कह दूं तुझे भूल गया हूँ   
मैं  तुझमें  ही गुम हो गया हूँ   

            कुफ्र  करता हूँ तेरी इबादत कर के
            तेरे इश्क़  में खुदा को  भूल गया हूँ 

            किसी  को  नहीं  चाह सका इतना मैं
            चाहत का इक दस्तावेज़ बन गया हूँ

            बेवफ़ा  नहीं  था पहले ऐ बेवफ़ा मैं
            तेरी बेवफ़ाई से बेवफ़ा बन गया हूँ

           नया ज़हां बसाया तूने मुझे छोड़ के
           जान  होते  हुए  भी मुर्दा हो गया हूँ

मैं  तुझमें  ही गुम हो गया हूँ    
कैसे कह दूं तुझे भूल गया हूँ   
                           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

आप का साथ

आप का साथ और प्यार की बात    
नहीं मुमकिन जीवन में ऐसी बात     

छलक रहे हैं मेरे अरमानों के प्याले    
आप सुनती ही नहीं आँखों की बात

छूने  को  जी  चाहे  अगर कभी  आप  को
रुक जाती हैं उंगलियाँ सोच कर कोई बात  

नींद  ही  नहीं आती अब रातों को मुझे   
हर पल जगाये रखती है आप की बात

चैन  नहीं  करार नहीं इक पल भी मुझे
समाये रहती है ज़ेहन में आप की बात

नहीं मुमकिन जीवन में ऐसी बात     
आप का साथ और प्यार की बात          
                         --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव     

दूरियाँ

दूरियाँ   बढ़ चली  हैं  तेरे  मेरे बीच में      
तड़प रहा मेरा तन-मन तेरे विरह में     
                  पास  आने  को  तेरे मेरा जी चाहता है
                  दूरियाँ मिटा दूंगा मैं अबकी सावन में

                  कितनी प्यारी है तू पाँव से सर तलक
                  चूम डालूँगा तुझको  मैं इस मिलन में

                  मना  करती है तू  मुझको  शराब पीने से
                  शराबी बना हूँ तेरी आँखों के मयखाने में

                  तेरी  मुस्कुराहटें  चलाती हैं तीरें इतनी
                  कैसे  बचाऊं  दिल  तेरी  जादूनगरी  में     
तड़प रहा मेरा तन-मन तेरे विरह में 
दूरियाँ  बढ़ चली  हैं  तेरे  मेरे बीच में 
                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    


रविवार, 20 फ़रवरी 2011

घरौंदा

तेरी  यादों  के  घरौंदे  में बैठा हूँ     
कैसे कटेगी ज़िन्दगी सोचता हूँ         

नहा  कर  अपनी  आँसुओं  से  मैं
यादों के दर्पण में खुद को देखता हूँ

थका देती  हैं  जब इन्तज़ार की घड़ियाँ 
तेरी तसव्वुर का बिस्तर बिछा लेता हूँ

जब कभी सताती है मुझे दुनिया ये
तिरे  प्यार  का आँचल ओढ़ लेता हूँ

कैसे कटेगी ज़िन्दगी सोचता हूँ  
तेरी  यादों  के  घरौंदे  में बैठा हूँ   
                                    --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    

तेरा मेरा

कैसा  है  अज़ीब  ये  रिश्ता  तेरा  मेरा  
इक दूजे को धड़कता है दिल तेरा मेरा    
           
                   इज़ाज़त नहीं देती दुनियाँ ज़ुबां  खोलने की
                   करने को बातें तरस जाता है दिल तेरा मेरा     

                   तेरे बिन दिल ही नहीं लगता कहीं मेरा
                   जाने कितना पुराना रिश्ता है तेरा मेरा 

                   कितना कंटीला  सफ़र गुज़ार रहे हैं हम 
                   हर आहट  पे  रुकता  है कदम तेरा मेरा 

                   बियांवा ज़िन्दगी की तल्ख़ राहों में    
                   इक दूजे को ढूँढ़ता है मन तेरा मेरा             

इक दूजे को धड़कता है दिल तेरा मेरा   
कैसा  है  अज़ीब  ये  रिश्ता  तेरा  मेरा 
                                    --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

मन की बातें

आज मन मन की बातें कह रहा है   
मन  का दर्द सुन मन कराह रहा है    

कितने  दर्द  ज़ज्ब  करूँ  मैं   इस मन में   
ग़ज़ल लिखने को मन मजबूर हो रहा है

बमुश्किल मिलता है इक हमसफ़र पसंदीदा
तलाश में हमसफ़र की पूरी ज़वानी गुज़रा है  

मिल जाये मोहब्बत शायद कहीं मेरे लिए
किताब-ए-दिल  तेरा मन  मेरा पढ़ रहा है   

प्यार  की  एक  बूँद टपक पड़ेगी सोच कर
मन तुझे चकोर की मानिंद तकता रहा है 

कितनों के इन्तज़ार किये हैं कितने मैंने 
तेरे भी इन्तज़ार  को मन बेबस हो रहा है

पागल कर रखा है तेरी हरकतों ने मुझे
तुझसे  अभिसार  को  मन तड़प रहा है

नाते-रिश्ते हैं बनते-बिगड़ते कितनी ज़ल्दी  
तमाम  उम्र मेरी  यही समझने में गुज़रा है  

मन  का दर्द सुन मन कराह रहा है    
आज मन मन की बातें कह रहा है  
                                  --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    

कल भी - आज भी

             
           ("एक ग़ज़ल पर आधारित ")   


कल भी दिल अकेला था आज भी अकेला है  
जाने  मेरी  ज़िन्दगी  में  क्या-क्या लिखा है   

ढूँढता  हूँ  मैं  वफ़ा  उसकी मोहब्बत में
वफ़ा सिर्फ मिलता है अपनी ग़ज़लों में

उम्र  के  कारवां  में  हर  कोई  थका-थका है  
किसका सहारा लें हर कोई सहारा चाहता है 

जाने  मेरी  ज़िन्दगी  में  क्या-क्या लिखा है     
कल भी दिल अकेला था आज भी अकेला है  
                                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

इस शहर में

ढूँढ़ते क्या हो राही इस शहर में  
हर कोई बेवफा है इस शहर में   
                
            एक  हरजाई   हो  तुम   ऐ  सनम
            यही है मुकाम तिरा मिरे नज़र में

            सिरायें दिल की फटने ही वाली हैं
            सुबह से शाम हो चली इंतज़ार में

            तेरी  ज़ुर्रत   पे  हैराँ  हो  रहा  हूँ  मैं
            जाने क्या-क्या सहने पड़ेंगे प्यार में

           जैसा चाहती  है  तू  हो रहा है वैसा   
           मैं लाचार हो चला हूँ तिरे प्यार में 

हर कोई बेवफा है इस शहर में 
ढूँढ़ते क्या हो राही इस शहर में    
                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    


वक़्त नहीं है

आ भी जाओ कि वक़्त नहीं है     
तू नहीं है तो यहाँ कुछ नहीं है    

वादा कर के तुम आते क्यूँ नहीं
तेरे इश्क में शायद वफ़ा नहीं है   

जाने क्या हो गया है मेरे दिल को  
तेरी  सूरत  भूल  पाता  ही नहीं है    

तेरी तस्वीर देख कर सोच रहा हूँ   
तेरी  असली सूरत  ये  तो नहीं है

तेरी मोहब्बत का  ही आशिक हूँ
बिन तेरे मेरा कोई वज़ूद नहीं है       

तू  नहीं है तो यहाँ कुछ नहीं है  
आ भी जाओ कि वक़्त नहीं है  
                        ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

हुआ क्या है

जानम आज तुम्हे हुआ क्या है    
नज़रें चुराने का माज़रा क्या है   

          सूत इतना प्यारा तो नहीं तुम्हारा
          तेरे  गुरुर का  फिर  वज़ह  क्या है

तेरे  खातिर ही  बैठा  हुआ  हूँ  यहाँ  मैं
देख तो सही नज़र मेरी कहती क्या है

         मेरे दिल को ऐंठ रही हैं जुल्फें तेरी
         इस बेदर्द हरकत का सबब क्या है

नज़रें चुराने का  माज़रा क्या है   
जानम आज तुम्हे हुआ क्या है   
                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

इतना चाहा

इतना चाहा  है  मैंने  तुझको  
और कितना चाहूँ मैं तुझको   
              अंग-अंग में समाया है प्यास मेरे    
              जी  चाहता  है  प्यार करूँ तुझको
   
              बहुत  धोखे  मिले हैं ज़िन्दगी में
              दिल नहीं चाहता दिल दूँ तुझको 

              दिल  नहीं  भरता तुझको देख कर  
              जी चाहता है देखता ही रहूँ तुझको 

              जाने कहाँ ग़ुम हो गया वजूद तेरा
              तसव्वुर में ढूँढ़ता रहता हूँ तुझको

              आँसुओं  में  भर  रखा  है  टब मैंने
              आ दिलबर इसमें नहलाऊ तुझको 
और कितना चाहूँ मैं तुझको 
इतना चाहा  है  मैंने  तुझको 
                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

भीगता रहा तकिया

बहुत  रोया  मैं  उसकी  याद  में कल रात    
आँसुओं से भीगता रहा तकिया कल रात   
                     तेरी बेरुखी का आखिर सबब है क्या
                     पल-पल यही सोचता रहा कल रात 
तुझे  इतना  चाहने  लगा  हूँ  ऐ  ख्वाब 
रो-रो के तुझे याद करता रहा कल रात
                    अक्श-अक्श  बेमिसाल  हैं  तेरे  बदन के
                    प्यार का अंदाज़ याद आता रहा कल रात   
हर रोज़ मिलती है खबर तेरी ऐय्यासियो की   
कितनो पे है तू मेहरबां सोचता रहा कल रात   
                    तेरी मुकम्मल चाहत नहीं  है हासिल मुझे 
                    तवायफ का है प्यार सोचता रहा कल रात   
मैं   जानता  हूँ   तेरी  हकीकत  तेरे  फ़साने
अपनी किस्मत पे सर धुनता रहा कल रात   
                    कोई  नहीं  सुनता  कोई नहीं पढ़ता मेरे अशआर
                    फिर क्यूँ लिखता हूँ गज़लें सोचा किया कल रात 
आँसुओं से भीगता रहा तकिया कल रात 
बहुत  रोया  मैं  उसकी  याद  में कल रात  
                                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

तू है क्या शै

तू  है  क्या शै  मैं  ये सोचता हूँ    
तू मेरी है या नहीं ये सोचता हूँ      

प्यार में बेवफाई ही पा रहा हूँ मैं
मोहब्बत है क्या मैं ये सोचता हूँ

तेरा आना तेरा जाना कब होता है 
अक्सर  मैं  यही  बातें  सोचता हूँ

तू सिर्फ मेरी ही बन के रहे ताउम्र
कैसे  हो मुमकिन ये मैं सोचता हूँ

कितने घरौंदे बना रखे हैं तूने दिल में
सुनकर  तेरे  बारे  में  यही सोचता  हूँ    

तू मेरी है या नहीं ये सोचता हूँ  
तू  है  क्या शै  मैं  ये सोचता हूँ      
                         --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

दिल तड़पता है

तू  आये  ना  आये  क्या फर्क पड़ता है   
तू जब सामने होती है दिल तड़पता है    

            तिरा प्यार  इक  छलावा है  तिरी तरह
            फिर भी दिल तिरे प्यार को मचलता है 

            चाहतों का वजूद गुम हो गया है जहाँ में 
            तिरे  चाहत  को  मेरा दिल सिसकता है

            किस कदर बेबस है दिल मेरा सोचो तो
            उसकी बेरुखी के बावजूद ये धड़कता है

            ज़िन्दगी  में  इक ये भी वाकया हुआ यारों
            उस संगदिल की खातिर दिल मेरा रोता है   

            इक नया ज़हां बसाने को था उसकी खातिर
            उसकी गैरमौजूदगी  नया  गुल  खिलाता है 

तू जब सामने होती है दिल तड़पता है
तू  आये  ना  आये  क्या फर्क पड़ता है 
                                                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव     

मैंने भी

मैंने भी की मोहब्बत ज़माने वालों    
मेरा  भी टूटा  है दिल ज़माने वालों         
             दर्द-ए-दिल की लज्ज़त होती है कैसी
             मैंने भी जायका पाया है ज़माने वालों 
                         कितना हसीं लगता है  चेहरा मेरे यार का
                         मैंने आज गुस्से में उसे देखा ज़माने वालों 
                                   यार की बेरुखी क्या-क्या गुल खिलाती है 
                                   आज खूं  के  आँसू  रोया मैं  ज़माने वालों 
                                                मर जाने की दुआ करते हैं क्यूँ लोग
                                                अब ये राज जाना मैंने ज़माने वालों   
                                                              मेरा  भी टूटा है  दिल ज़माने वालों  
                                                              मैंने भी की मोहब्बत ज़माने वालों        
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

आज फिर

आज फिर मेरा मन उदास हुआ    
आज फिर मेरा दिल बेबस हुआ 
       मोहब्बत  में  तकलीफें ही मिलीं
       ये तकलीफें ही तेरा तोहफा हुआ
             खून   के  आंसू  बहा  रहा  हूँ  मैं
             आज फिर दिल मेरा घायल हुआ
                    आंसू भी कितने बेजार हैं मेरी तरह
                    इन्हें   कोई  पोछने  वाला  न  हुआ 
                           जाने  क्यूँ  मैं  उम्मीद कर लेता हूँ
                           आज फिर उम्मीदों का क़त्ल हुआ
                                   मेरा हो के मेरा ही रह सके कोई
                                   मैं  तो  इस  काबिल  भी न हुआ
                                           तूने  दुत्कारा है मुझे कुत्ते की मानिंद
                                           आज तकलीफों का कारवां शुरू हुआ 
                                                    मैं सब जान के भी तुझसे जुडा हुआ हूँ
                                                    तू आज दिखा मुझे उखड़ा-उखड़ा हुआ

                                                    तेरे होंगे कई चाहने वाले इस दुनिया में
                                                    मैं  तुझसे  बिछुड़ के आज अकेला हुआ
                                           मैं आज अपने दिल की क्या कहूँ 
                                           मेरे दर्द  का तो आज इंतिहा हुआ 
                                 बेईज्ज़ती  के  बाद  भी  तुझसे मिलूँगा
                                 ये  तो  मेरी  मोहब्बत का इम्तहाँ हुआ 
                    दर-ओ-दीवार  ही  खड़ी की थी मैंने
                    मेरा आशियाना जल के खाक हुआ
         सब कुछ ख़ाली-ख़ाली सा लगता है 
         बहार में ही खिजां का मौसम हुआ
आज फिर मेरा दिल बेबस हुआ 
आज फिर मेरा मन उदास हुआ                                                                                                                                                                      
                               --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 
                                                               

एक प्रश्न

एक प्रश्न 
मथ रहा है मेरे मन को
कुछ दिनों से
उथल-पुथल मची हुई है
मस्तिष्क में
कुछ दिनों से
चिंतन करते-करते
जब असहाय महसूस किया
स्वयं को मैंने तो
सोचा
क्यूँ न अपनी परम मित्र
अपनी कविताओं को
सुनाऊं अपनी परेशानी
जो सदैव मुझे
चैन,सांत्वना देती आई हैं
प्यार करती आई हैं
जीवन की प्रत्येक परेशानी में
जीवन के प्रत्येक दुःख में  
जीवन के प्रत्येक विछोह में  
इसी कारण आज
लेखनी ले कर आ बैठा
मिलने अपनी कविता से
अपना दुखड़ा
यूँ सुनाया कविता से --
क्यूँ नारी समझती हैं
हर पुरुष मात्र शरीर
का भूखा है उसके ??
प्यार में थोडा आगे बढ़ो
कुछ
उसके रूप की प्रशंसा करो
कुछ 
तो समझती है
बदन चाहता है ये मेरा
काबिल नहीं इसका प्यार मेरा...
मैंने कहा अपनी कविता से --
ऐ सखी !!!
जब प्यार किसी से होता है
जब प्यार कोई स्वीकारता है
तो सबसे पहले
दोनों की आत्माएं
करती हैं स्पर्श एक दूजे को
कर लेती हैं समाहित एक दूजे को
विचार छू लेते हैं
एक दूसरे के अनछुए मन को
जोड़ देती हैं मस्तिष्क तरंगें
दोनों की भावनाओं को
स्वीकारते ही 
एक दूसरे का प्यार 
हो जाता है मिलन
दो आत्माओं का
दो सोचों का
दो भावनाओं का
दो कल्पनाओं का
दो सपनों का
दो विचारों का
इसके उपरांत -
आ भी गई यदि बात कभी
तन-मिलन की
तो क्यों चौकन्ना हो जाता है
इंसान ??
क्यों चौंक उठता है 
इंसान ??
ऐसा लगने लगता है
जैसे 
होने जा रहा है कोई अपराध
होने जा रहा है कोई महापाप
आसमां गिर पड़ेगा
धरती फट पड़ेगी
दोनों अपवित्र हो जायेंगे
मैंने कहा कविता से --
शरीर तो मिल जाता है
चांदी के चंद सिक्कों के बदले
बाज़ार में
लेकिन आत्मा, प्यार, भावना 
नहीं मिलते किसी के भी बदले
बाज़ार में 
शरीर तो छण-भंगुर है 
नष्ट हो जायेगा 
भष्म हो जायेगा
आत्मा तो अमर है 
भावनाएं तो शाश्वत हैं 
इनके मिलने पर
परहेज नहीं जब
ऐतराज़ नहीं जब
शरीर के मिलने पर
ऐतराज़ क्यों तब
परहेज़ क्यों तब
हंगामा क्यों तब
ये नाटक क्यों तब
दूषित होते हैं यदि
तन-मिलाप पर
तो क्यूँ नहीं दूषित होते 
भावना-मिलाप पर
सोच-मिलाप पर
आत्मा-मिलाप पर ???
क्या इसका निकाला जाय
ये निष्कर्ष कि
आत्मा नहीं सर्वोच्च है शरीर
आत्मा नहीं मूल्यवान है शरीर ??
मेरी कविता ने कहा --
मेरे प्रिय सखे  !!!
खेद है
मैं नहीं दे सकती
उत्तर
आज तुम्हारे इन प्रश्नों का
चूँकि
मैं स्त्रीलिंग हूँ
यदि झूठ बोलती हूँ तो
तुम कहोगे स्त्री का पक्ष लिया
यदि सत्य बोलती हूँ तो
मेरी सहेलियां कहेंगी
अपने वर्ग से विद्रोह किया
आशा है मुझे क्षमा करोगे
मुझे समझ सकोगे
मैंने एक आह भरी
और कहा --
धन्यबाद सखी,
मुझे मेरा उत्तर मिल गया
तुमने कुछ न कह कर भी
बहुत कुछ कह दिया .......
                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  


  


बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

आ जा यार मेरे

आ जा यार मेरे  
तेरे बिन सूना मन मेरा
आ जा प्यार मेरे
तेरे बिन प्यासा तन मेरा
आ जा दिलदार मेरे
तेरे बिन बेचैन दिल मेरा
आ जा सनम मेरे
तेरे लिए बेचैन बाँहें मेरी
आ जा करार मेरे
तेरे बिन बेक़रार आँखें मेरी
आ जा हमसफ़र मेरे
तेरे बिन बेतरतीब धड़कने मेरी ....    
                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव