चले भी आओ सनम कि दिल तड़पता है
मान भी जाओ सनम कि दिल धड़कता है
सोचता हूँ जाने कैसे उम्र कटेगी तेरे बगैर
इक-इक पल सदियों सा लगता है
कितनी आरजुएं थीं दिल में, कितनी उमंगें थीं
हर-इक चेहरा अपना लगता था
सभी के ख्यालों में दिल खो जाता था
दीनोदुनिया की खबर ही ना थी
आने वाले वक़्त की फिक्र ही ना थी
सब कुछ तो यूँ ही था
किसी को किसी की खबर ही नहीं
हर कोई पराया था
हर ख्वाब अधूरा था
आरजुएं मसल दी गयीं
उमंगें कब्र में दफना दी गयीं
हम जो सोचते थे सब हमारे हैं
हम तो पहले भी अकेले थे
हम तो आज भी अकेले हैं...
इस मशीनी दौर में
तसव्वुर में बसा आकार
भला कहाँ होता है साकार ??
आधी ज़िन्दगी इस भ्रम में गुज़र गई
बाकी भ्रम के अफ़सोस में गुज़र जायेगी
हम तो साँसे लिए जा रहे हैं
जाने कैसे जिए जा रहे हैं
मैं भी कितना निर्लज्ज हूँ
दुनिया को अपनी ही नज़रिए से देखता हूँ
मैं भी तो औरों जैसा ही हूँ
अपना ही मतलब साधता हूँ
उम्र के इस मोड़ पर अब भी तलाशता हूँ
एक ऐसे शख्स की जिसमें सुकूं ढूँढ सकूँ
अपना गम अपनी आरजुएं सुना सकूँ
क्या कभी ऐसा हो सकेगा
कोई मेरे दिल की धड़कने समझ सकेगा
कुछ अपनी सुनाएगा कुछ मेरी सुन सकेगा
ज़िन्दगी का क्या भरोसा
जाने कब जीवन की डोर टूट जाये
किसी को अपना बनाने की उम्मीद टूट जाये
मन के बिखरे विचारों को यूँ ही
उतारे जा रहा हूँ इस कागज़ी सतह पर
जाने कौन याद आ जाये जीवन के इस मोड़ पर
ये गीत नहीं, ग़ज़ल नहीं, नज़्म भी नहीं है
न ही ये कविता है, न ये पद्य है
ये तो मेरी व्यथा-कथा है
इसे यूँ ही लिखे जा रहा हूँ
मन को हल्का किये जा रहा हूँ......
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
मान भी जाओ सनम कि दिल धड़कता है
सोचता हूँ जाने कैसे उम्र कटेगी तेरे बगैर
इक-इक पल सदियों सा लगता है
कितनी आरजुएं थीं दिल में, कितनी उमंगें थीं
हर-इक चेहरा अपना लगता था
सभी के ख्यालों में दिल खो जाता था
दीनोदुनिया की खबर ही ना थी
आने वाले वक़्त की फिक्र ही ना थी
सब कुछ तो यूँ ही था
किसी को किसी की खबर ही नहीं
हर कोई पराया था
हर ख्वाब अधूरा था
आरजुएं मसल दी गयीं
उमंगें कब्र में दफना दी गयीं
हम जो सोचते थे सब हमारे हैं
हम तो पहले भी अकेले थे
हम तो आज भी अकेले हैं...
इस मशीनी दौर में
तसव्वुर में बसा आकार
भला कहाँ होता है साकार ??
आधी ज़िन्दगी इस भ्रम में गुज़र गई
बाकी भ्रम के अफ़सोस में गुज़र जायेगी
हम तो साँसे लिए जा रहे हैं
जाने कैसे जिए जा रहे हैं
मैं भी कितना निर्लज्ज हूँ
दुनिया को अपनी ही नज़रिए से देखता हूँ
मैं भी तो औरों जैसा ही हूँ
अपना ही मतलब साधता हूँ
उम्र के इस मोड़ पर अब भी तलाशता हूँ
एक ऐसे शख्स की जिसमें सुकूं ढूँढ सकूँ
अपना गम अपनी आरजुएं सुना सकूँ
क्या कभी ऐसा हो सकेगा
कोई मेरे दिल की धड़कने समझ सकेगा
कुछ अपनी सुनाएगा कुछ मेरी सुन सकेगा
ज़िन्दगी का क्या भरोसा
जाने कब जीवन की डोर टूट जाये
किसी को अपना बनाने की उम्मीद टूट जाये
मन के बिखरे विचारों को यूँ ही
उतारे जा रहा हूँ इस कागज़ी सतह पर
जाने कौन याद आ जाये जीवन के इस मोड़ पर
ये गीत नहीं, ग़ज़ल नहीं, नज़्म भी नहीं है
न ही ये कविता है, न ये पद्य है
ये तो मेरी व्यथा-कथा है
इसे यूँ ही लिखे जा रहा हूँ
मन को हल्का किये जा रहा हूँ......
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
हर-इक चेहरा अपना लगता था
जवाब देंहटाएंसभी के ख्यालों में दिल खो जाता था
दीनोदुनिया की खबर ही ना थी
आने वाले वक़्त की फिक्र ही ना थी
सब कुछ तो यूँ ही था
वाह क्या बात है सर जी हम तो आपके फेन हो गए
व्यक्ति के लिए अपने आप से प्यार करना जितना आसान है दूसरों को प्यार देना उतना मुश्किल
जवाब देंहटाएं