बुधवार, 16 मार्च 2011

याद है

याद है संग्रहालय कक्ष 
और तुम्हारा साथ
तुम मेरी बाँहों में थी 
निगाहें मेरी इधर-उधर घूमती सतर्क
बेचैन प्यासे अधरों से जब
तुमने मेरे होंठ छुए 
बिखर पड़ी थी फिजाओं में
प्यार की सौगात
दौड़ पड़ी थी शिराओं में
उत्तेजना भरी रक्तजात !
  
याद है वो चिड़ियाघर
चिड़ियाघर का वो वृक्ष
बैठे थे पास-पास
हम जिसकी जड़ों पर
बैठ गया था एक बार मैं
तुम्हारे दुपट्टे पर
डूबा हुआ था मैं
तुम्हारी निगाहों में 
भविष्य ढूँढ रहा था शायद
तुम्हारी स्याह  नयनों में
किये जा रहा था शरारत मैं
प्यार ही प्यार में !!

याद है तुमने कहा था
ये चूड़ी नहीं आप हैं
जिस तरह एक बार कहा था तुमने
मेरी आँख में ये तिल नहीं आप हैं
टूटी थी जब चूड़ी एक
मेरी भूल से
तुमने देखना चाहा था
मेरे प्यार की मात्रा
तोड़ कर चूड़ी के
छोटे-छोटे कणों से
खनक रही थीं तुम्हारी
हरी पीली लाल काँच की चूड़ियाँ 
तुम्हारे हस्त-वेग से
लिपट-लिपट जाया करती थी
तुम 
बातों ही बातों में अपने साजन से
उंगलियाँ
फिराया करती थीं तुम
मेरे बालों में
सबसे छुपके चुपके से !!

याद हैं वो सेब वो केले
खाए थे जो हमने 
काट-काट बारी-बारी
वो काफी वो चाय 
जिसकी ली थी चुस्कियाँ 
मैंने तुम्हे पिलाने के बाद 
वो आइसक्रीम 
जिसे खाया मैंने
तुम्हें खिलाने के बाद
घूमा किये हम 
हाथों में हाथें डाल कर
चुम्बन धरा किये हम
होठों पर 
लोगों की आती-जाती 
नज़रें बचा कर !!

याद है तुम्हारे भरे-भरे पाँवो में 
पायल का पहनाना  
सुन्दर-सुन्दर उँगलियों में 
बिछुआ पहनाना
और फिर
धीरे से, चुपके से
तुम्हारे पैर का अंगूठा चूसना !!
लेने के लिए
सभी प्रेमपत्र
झपटना तुम्हारा !
मेरी
हर शरारत पर
हर शरारती बात पर
"मार दूंगी"
प्यार से कहना तुम्हारा
"चुप रहिये"
कह कर शोख अदाएं
दिखाना तुम्हारा
कितना अच्छा लगा था तुम्हें
मैंने जब
चरमानंद दिया
कितना आह्लादित हुआ था मैं 
जब
कई बार के प्रयत्न से
सुगन्धित "केश" एकत्र किया !!

याद है 
महकती साँसें अपनी
फूँकी थी तुमने
मेरे चेहरे पर 
सुन कर मेरी बातें सिर तुम्हारा
आ टिकता था मेरे काँधे पर 
वो रेस्तरां की बातें
वो रिक्शे का सफ़र
उस पर
अपनी बातें कहते हम
एक दूसरे के तन-स्पर्श का 
आनंद लेते हम 
चलते-चलते
वो मेरा नोचना तुम्हें 
अपने वादों का स्मरण
कराना तुम्हें
नीले निशान बदन के
अपने
मुझे दिखाना तुम्हारा
जानवरों के बारे में
पूछने का 
याद है वो अंदाज़ तुम्हारा !!

याद है साँझ ढले तक
बैठे रहना संग-संग 
मीठी-मीठी बातें
करते रहना संग-संग !!

याद है संग्रहालय की सीढियाँ
औ' हमारे बीच नजदीकियाँ 
देर तलक जहाँ बैठे रहे हम
नारियल भूजा खाते रहे हम
पाँव का घाव दिखाया था मैंने
उसे प्यार से सहलाया था तूने
घडी पहनाई थी तुम्हें मैंने !!

वक़्त कितनी ज़ल्दी बीत गया था
हमारा प्यार कराहता रह गया था
हमारी बातें
अधूरी रह गयी थीं
हमारे दिलों की इच्छाएं
अनछुई रह गयी थीं !!

याद है
तुम चली गयी थी उधर
मैं चला आया था इधर !!

याद है
वो सब कुछ जो हमने
उन महकते दिनों में 
एक दूजे के संग
जिया-दिया-पाया !!

याद है
वो मिलन, उसकी स्मृतियाँ
जो हमें
एक दूसरे को और निकट लाया !!!!!!
                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  







शनिवार, 12 मार्च 2011

मेरी नन्ही कली

एक नन्हीं सी
कली    
खिली है हमारे आँगन में
जैसे
खिल जाएँ दिशाएँ 
सावन में!

बिखेर रही है
खुशबू वो
नित-नित
हमारे जीवन में !!

मिल गयी है
एक नई दिशा
एक नई विधा
मेरी
कविता को !

"पंखुड़ी"
नाम है उसका
चंचल
स्वभाव है उसका
मासूम है वो
खूबसूरत है वो
शैतान है वो
माँ विंध्यवासिनी की
की
अनुपम वरदान है वो
हमारे जीवन की
आस है वो
बुढ़ापे की प्रकाश
है वो
हमारे प्रेम की
स्मृति है वो

कर लेती है मनमुग्ध
बिखेरती है जब
मुस्कान धवल-दुग्ध 
उसकी मासूम उपस्थिति 
रोक लेती है
हमारी वाक्-युद्ध

एक पुलिया है वो
हमारे दाम्पत्य जीवन की
एक तार है वो
हमारे जीवन-वीणा की
एक उद्देश्य है वो
हमारे जीवन की
रस है वो
हमारे जीवन-पौध की 
दूर हो जाती है
देख कर उसे
थकान दीर्घ यात्रा की
दूरस्थ हो कर होती है
प्रतीक्षा 
मिलने की एक "पारी" की

पहुँचता हूँ
जब भी मैं उसके पास
जहाँ भी हो
दौड़ी चली आती है मेरे पास

होती है कितनी हर्षित
वो 
मुझे देख कर 
होता हूँ वैसा ही हर्षित
मैं
उसे अंक में ले कर

जब भी
होती है नाराज़
कह उठती है
"गन्दी-पाटी"
अभी तो
है लक्ष्मी ही उसके
बालपन की साथी
आगे तो
बहुत कुछ है उसके  
जीवन की थाटी 

जब भी करो फोन
कहती है --
"पापा आ जाओ"
देख कर ड्रेस्ड 
कहती है
"पापा,आजमगढ़ जाओ
मेरे लिए पैसा लाओ
खरीदूंगी मैं
उससे सुन्दर-सुन्दर फ्राक" 

जब करती नहीं उसकी मम्मी
काम
जमाती  है
उस पर अपनी धाक 
"मम्मी, बात नहीं सुनती हो ?
काम क्यों नहीं करती हो ?? "

लगते ही भूख
चिल्लाती है --
मम्मी गाय बुब्बू दो
रुग्ण  होने पर
नहीं खाती
एलोपैथिक दवा 
मांगती है
मीठी-मीठी दवा 

दादी-बाबा की है
दुलारी पोती
बहुधा
उनके पास है रहती

गुड्डू काकू 
से उसका रिश्ता  
खट्टा-मीठा है
साथ-साथ घूमती है
पर सामान उन्हें
अपना
छूने नहीं देती है

नाना
आह्लादित हो उठते हैं
उसे पास पा  कर
सुबह-शाम
टहल आते हैं
उसे साथ लेकर
कहानियां सुनती है
वो
उनके पास सो कर

नानी
ने कर लिया है
वश में उसे
फ्राक दे-दे कर 
टिंकू मामा
ने
रंग जमा दिया है
अपना
उस पर
"बनाना" खिला-खिला कर

एक नन्हीं सी
कली 
खिली है हमारे आँगन  में
जैसे
खिल जाएँ दिशाएँ 
सावन में !!
                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

तूने भी

आखिर तूने भी हाथ छुड़ा  लिया 
जाने क्या ऐसी मैंने खता  किया   

                   किसका सहारा लूँ ज़िन्दगी के भँवर में  
                   तूने तो मेरे हाथों से पतवार छीन लिया 

क्या रहा मकसद बताओ तो ज़रा  
जब जीवन से तूने किनारा किया 

                    क्या कहूँ कितने तनाव में हूँ मैं  
                    तूने  पागलपन का सामां किया 

जाने क्या ऐसी मैंने खता  किया 
आखिर तूने भी हाथ छुड़ा  लिया 
                                              --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

पी रहा हूँ

तेरी तस्वीर देख कर पी रहा हूँ              
तुझे याद कर-कर के पी रहा हूँ  

        खुदगर्ज़ तूने सिर्फ खुद को सोचा  
        मैं तुझे सोच-सोच कर पी रहा हूँ  
         
                   ऐसा जख्म दिया है तूने सनम   
                   मैं  आज  रो-रो  कर  पी रहा हूँ   
                            
                               क्यूँ छुड़ा लिया तूने दामन अपना 
                               मैं तो खुद के खारे आँसू  पी रहा हूँ 

                                          कैसे  जिऊँगा  तेरे  बगैर  तूने  नहीं  सोचा  
                                          मैं तेरी बेरुखी पर सीना पीट कर पी रहा हूँ  

                                                   तू चाहता है मैं तुझे भूल जाऊं ऐ बेदर्द   
                                                   तेरे दिए  दर्द से परेशां हो  के पी रहा हूँ 

                                                              तुझे याद कर-कर के पी रहा हूँ   
                                                              तेरी तस्वीर देख कर पी रहा हूँ    
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

बुधवार, 9 मार्च 2011

जाने कहाँ

जाने  कहाँ  चली  गई  नींद आँखों से !
आज छिन गया ख्वाब भी पलकों से!!

फ़क़त चार दिन तो हुए हैं आप को गए हुए !
यूँ लगता है आपसे बिछुड़े हैं हम बरसों से !!

जाने  क्या हो गया है मेरे दिल को !
बहलता नहीं आपकी तस्वीरों से !!

आप तो चली जाती हैं मुझे तनहा छोड़ ! 
पूछिए हाल  मेरा मेरे तड़पते  रोओं  से !!

होंगी आप खूब गहरी नींद में इस वक़्त !
मैं बहला रहा हूँ दिल अपनी अशआरों से !!   

आज छिन गया ख्वाब भी पलकों से!!
जाने  कहाँ  चली  गई  नींद आँखों से !
                                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

सुनिए जी

सुनिए जी  इक बात कहता हूँ आपसे !    
करता हूँ  मोहब्बत  बेहिसाब आपसे !!
         
                      जिस दिन से देखा है निगाहों ने आपको ! 
                      परेशां-परेशां  रहता  है  दिल  ये  आपसे !!

                      आपके इन्कार का नतीजा है शायद ये !
                      ख्वाबों में ही करता हूँ प्यार मैं आपसे !! 

                      लरजे-लरजे हैं ख्वाब मेरी पलकों पे ! 
                      हकीकत के रंग माँगते  हैं ये आपसे !!
         
                      जी चाहता है रख दूँ इक चुम्बन लबों पे !
                      खफा हो जाएँगी सोच के दूर हूँ आपसे !!   

करता हूँ  मोहब्बत  बेहिसाब आपसे !  
सुनिए जी इक बात कहता हूँ आपसे !!    
                                          --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

कथ्य-१०

हर ज़िन्दगी 

मंजिल को पा लेगी  --

ज़रूरी तो नहीं,

कुछ जिंदगियाँ

अधूरी कहानियों की तरह 

बिखर भी जाती हैं .......

मंगलवार, 8 मार्च 2011

रुला गया

मुझको  मेरा  हमनशीं  रुला-रुला गया है !
अश्क-ए-जुदाई से आँखें मेरा भर गया है !!

तफरीह की खातिर जो छोड़ा शहर आपने  !
सारा  शहर  उसी दम से वीरान हो गया है !!

कैसा करिश्मा है आप की मोहब्बत का !
मुझको  मुझसे ही  जुदा  कर  गया  है !!

कहिये तो राज-ए-दिल कह दूँ आपसे !
दिल  मेरा  मिरा  साथ  छोड़  गया  है !!  

आप की जुदाई में क्या हाल है क्या कहूँ !
इक-इक पल दिल पे पत्थर रख गया है !!

आपकी हँसी आपकी आवाज़ सूरत आपकी !
सनम  इन सबको  मन मेरा  तरस  गया है !!          

अश्क-ए-जुदाई से आँखें मेरा भर गया है !
मुझको  मेरा  हमनशीं  रुला-रुला गया है !! 
                                                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

सामने बैठी रहो

तुम सामने  बैठी रहो मैं  उम्र गुज़ार दूंगा !  
यूँ ही प्यार करती रहो ये दुआ मांग लूँगा !!

                 इश्क़ की बदली बन बरस जाओ तपते दिल पे !
                 हर  इक बूँद  को  अमृत  की मानिंद  पी  लूँगा !!  

                 चाँदनी  बन  के  उजाला  कर  दो दिल आँगन में !  
                 तुम्हारी आँचल में झिलमिलाते सितारे भर दूंगा !! 

                 रख दो ज़रा हाथ तुम इस बेक़रार दिल पे !  
                 जीवन  में  इक  नींद  तो चैन की सो लूँगा !!  

                 मेरे इन्तकाल के वक़्त मेरे पहलू में रहना ज़रूर !  
                 तिरे ज़िस्म की ख़ुश्बू से कुछ पल और जी लूँगा !!

                 क्या ही अच्छा हो गर तेरे गम मेरे हो जाएँ !
                 ज़िन्दगी की मकसद हुई पूरी ये सोच लूँगा !!

                 ज़िन्दगी भर यूँ ही हँसती मुस्कुराती रहो सनम !  
                 तेरी  ख़ुशी  की  खातिर  खूं  के चराग़ जला दूंगा !!

यूँ ही प्यार करती रहो ये दुआ मांग लूँगा !
तुम सामने  बैठी रहो मैं  उम्र गुज़ार दूंगा !!
                                             --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    



सोमवार, 7 मार्च 2011

क्या हो गया है

क्या हो गया है  
मुझे ??
लिखने को शब्द नहीं मिलते
मुझे !
सब कुछ गडमड 
हो गया है !
ऐसा प्रतीत होता है
जैसे कुछ
खो गया है !
अपने विचारों को
संजो नहीं पा रहा मैं !
जीवन को
समझ नहीं पा रहा मैं !
क्या होना है
क्या होगा मेरा ??
जो चाहता हूँ
वो नहीं है मेरा  !
हे ईश्वर !!
किस असमंजस में
डाला है तूने ??
किस पल लिखा भाग्य
मेरा तूने ??
इतने दुःख सहने योग्य
क्या मैं ही
दिखा था तुझे ??
मैं भूखा हूँ
जन्म ही से 
परन्तु  
व्यंजनों से भरी
जो थाल रखी है मेरे सामने
उसे छूने से किया है मना उसने
मेरी दोस्तों -- मेरी ग़ज़लों, मेरी कविताओं !!
कुछ तुम्हीं बताओ
इसका कोई हल सुझाओ
मैं क्या करूँ ??
जिउं या मर जाऊं ??
कोई शिकायत 
नहीं मुझे उससे !
बहुत कुछ मिला है
अब तक मुझे उससे !
पर क्या करूँ
समाप्त ही नहीं होती
इच्छाएँ मेरे मन की !
उड़ान भरना चाहती हैं 
परहीन ये
मुक्त गगन की !
कोई समझाए इन्हें
सत्यानाश कर बैठेंगी 
अपने सुकोमल तन की !
अपनी चिंता ही नहीं
इन्हें
आकाश छूने की चाह में !
इन्हें पता ही नहीं
लहूलुहान हो जाएँगी
ये राह में !
अब तो जो भी हो परिणाम 
मरुँ या जिंदा रहूँ मैं 
नहीं छोडूँगा चाहना उसे मैं
क्योंकि
बहुत हठी हूँ मैं !
ये सच है
कि
प्यार करता हूँ मैं
उस वीरबहूटी को !
प्रतिछन  सम्मुख 
चाहता हूँ मैं
उस सुंदरी को !
प्रतिपल सुनना चाहता हूँ
स्वर मैं
उस देवी का !
अभीप्सा है 
मेरी हर साँस में
घुली हो देहगंध
उस मोहिनी की !
मेरे संग-संग उठें कदम 
उस प्रेमपरी के !
क्यों नहीं पूरी होतीं 
मेरी इच्छाएँ
क्यों नहीं सच होता
मेरा कोई सपना ??
यूँ लगा है
जीवन मेरा बन जायेगा
एक सपना !
आश्रित हो कर रह गया हूँ
अपने सपनों पर
मैं !
छुआ करता हूँ 
उसे 
सपनों में ही
मैं !
ऐसा भाग्य लेकर 
मैं क्यों नहीं जन्मा
कि
अंकशायिनी बना सकूँ
अपनी प्रियतमे को
मैं !
अभिलाषाओं का दमन
कब तक करूँ ??
अपने भाग्य पर विलाप 
कब तक करूँ ??
इन सबकी परिणति
अंततः
क्या है 
थोडा सा हँसा कर
क्यों रुलाता है मुझे ईश्वर ??
क्यों नहीं हर लेता
वो प्राण मेरे ??
यदि दे नहीं सकता
वो मुझे अधिकार मेरे ??
                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव       

रविवार, 6 मार्च 2011

जी लेंगे

जा  ऐ संगदिल तेरे बगैर भी हम जी  ही लेंगे  
ज़नाज़ा-ए-आरज़ू पे अश्क-ए-गम बहा लेंगे   

मेरी  दीवानगी  की  भला  तुझे  क्या खबर   
तेरी खातिर इन्तेहा-ए-इश्क़ से गुज़र लेंगे      

ना ले  इम्तिहां मेरी कूबत-ए-इश्क़ की 
हम दीवाने हैं तेरे ज़माने से टकरा लेंगे  

भले ही न हो तू  लकीर-ए-तकदीर में मेरे 
देख लेना इक दिन तुझे खुदा से चुरा लेंगे 

इक दिन मिलना बंद  कर दो शायद मुझसे तुम 
दिल को किसी तरह तेरी तस्वीर से फुसला लेंगे 

ज़नाज़ा-ए-आरज़ू पे अश्क-ए-गम बहा लेंगे 
जा  ऐ संगदिल तेरे बगैर भी हम जी  ही लेंगे  
                                        --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    

कथ्य- 9

गंभीर प्रकृति वाले पुरुष आग हैं -

ये जलते हैं, जलाते हैं

और

राख़ बन कर ठन्डे पड़ जाते हैं

परन्तु अंत समय तक ज़बां नहीं खोलते --

नहीं कहते कि

उनमें जलन है, ज्वाला है, तृष्णा है, अतृप्ति है  

और

उनके शमनार्थ पानी की एक बूँद

अथवा

तृप्ति की एक घूँट चाहिए .......

शनिवार, 5 मार्च 2011

क्यूँ नहीं मिलता

खुदा तेरी दुनिया में मुझे प्यार नहीं मिलता   
आखिर मुझे  इक बावफा क्यूँ  नहीं मिलता 

           यूँ तो सब कुछ मिलता है दुनियाँ में   
           पर ढूँढने  से यहाँ वफ़ा नहीं मिलता   

           बहुतेरी कोशिशें कर चुका हूँ मैं पर
           तिरे मिजाज़ का पता नहीं मिलता 

           भर रखा है उसने तो अमृत कलश   
           इक बूँद मुझे भी क्यूँ नहीं मिलता 

           देखता ही रह गया या रब मैं तो तासफ़र 
           उसकी आँखों में अक्श मेरा नहीं मिलता 

           मैं ही नहीं काबिल  उस  शोख के शायद 
           मोहब्बत इसीलिए उसका नहीं मिलता 

           दामन-ए-सब्र पकडे रहूँ कब तक मैं   
           मुझे कहीं कोई सहारा नहीं मिलता 

           बनाना  चाहता  हूँ  इक  आशियाना  मैं  भी
           या खुदा तेरी दुनिया में तिनका नहीं मिलता         

आखिर मुझे  इक बावफा क्यूँ  नहीं मिलता 
खुदा तेरी दुनिया में मुझे प्यार नहीं मिलता  
                                          --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

फेयरवेल

कैसे कह दूँ तुझे अलविदा ऐ सनम 
कैसे करूँ यादें दिल से जुदा ऐ सनम      

इसी छत तले चढ़ा है परवान प्यार मेरा  
कैसे भुला सकूँगा इस छत को ऐ सनम 

जीते जी कैसे करे अलग दिल कोई   
सुकून ना पा सकूँगा कभी ऐ सनम   

दिल छलनी हुआ जा रहा हैं सत्रावसान से 
जाने क्या तू सोचती होगी आज ऐ सनम   

ये बरामदा ये रूम तुझे मेरी याद दिलाएंगे 
तू जब कभी यहाँ आएगी जाएगी ऐ सनम 

जब भी देखोगी सनद तुम बी०एड० की
तेरे ख्यालों में मैं चला आऊंगा ऐ सनम 

आँखों-आँखों में किये हैं जो बातें हमने   
बताओ क्या उन्हें भूल जाओगी ऐ सनम    

तुझे ऐतबार ही नहीं मेरे पाकीज़ा प्यार पे  
जुबान कांपती है कुछ कहने से ऐ सनम 

कुछ नहीं चाहता विश्वास के सिवा दीवाना     
चाहत वफ़ा प्यार सब तेरे लिए हैं ऐ सनम    

ये और बात है तुझे नहीं है प्यार मुझसे   
जर्रा-ए-बदन  में तू ही बसी है ऐ सनम 

शायद आम बातें हों ये  तेरी नज़रों में    
मैंने तो तेरी ही आरज़ू की है  ऐ सनम 

कैसे करूँ यादें दिल से जुदा ऐ सनम 
कैसे कह दूँ तुझे अलविदा ऐ सनम 
                                 --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

जनम-जनम

तुम भले ही बातें करो सिर्फ इस जनम की 
मैं तो  बातें किया करूँगा जनम-जनम की 

                 जाने कितने प्यासे  हैं  हम इक दूजे के लिए
                 देखो आ गए प्यास बुझाने पिछले जनम की

                 तमाम बातें रह गयीं  थीं करने को तुझसे  
                 आ सब कुछ कह डालें हम उस जनम की 

                 क्या थे, कैसे थे, मिले  थे या बिछुड़  गए थे 
                 जाने क्या था याद नहीं कुछ उस जनम की 

                 हम  और पहले भला क्यूँ  नहीं मिल सके 
                 तेरे बिन वो दिन रीते बीते इस जनम की

                 आ सजनी कर लें वादा हम एक दूजे से  
                 साथ  गुजारेंगे  हर  पल  इस जनम की   

                 तुझे  चाहा  था, चाहता  हूँ, चाहता  रहूँगा   
                 चाहत मेरी तेरे लिए है जनम-जनम की    

मैं तो  बातें किया करूँगा जनम-जनम की    
तुम भले ही बातें करो सिर्फ इस जनम की 
                                              --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

अच्छा लगे है मुझे

तेरे  बारे  में  सोचना अच्छा लगे है मुझे 
तेरे ख्यालों में खोना अच्छा लगे है मुझे     

मैं रहूँ और तुम्हारा ख्याल हो साथ में
बस यूँ ही तन्हाई अच्छा लगे है मुझे

सोचता रहता हूँ इक-इक बातें तुम्हारी
जितना सोचूं उतना अच्छा लगे है मुझे 

कितना  जायका  है  तुम्हारी  मोहब्बत  में  
इसकी खातिर तड़पना बदमज़ा लगे है मुझे

कहीं एक हादसा ना हो अपना रिश्ता भी   
सोचूं  तो  बड़ा  खौफ  सा  लगे  है  मुझे 

तेरे ख्यालों में खोना अच्छा लगे है मुझे  
तेरे  बारे  में  सोचना अच्छा लगे है मुझे 
                                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव     

मंगलवार, 1 मार्च 2011

दस्तूर

ज़माने का शायद यही दस्तूर है ऐ दिल  
तिल-तिल तुझे जलते रहना है  ऐ दिल    

              कोई भी समझ सके तेरे मन की बातों को   
              जहाँ  में  ऐसा  कहाँ  कोई  मिलेगा ऐ दिल

              तुझे क्यूँ रहती है परवाह सब के दिलों की 
              जब  औरों  को  नहीं  परवाह  तेरा ऐ दिल

              क्यूँ  बहाता  है  आंसुयें  तू  तन्हाई  में 
              ग़म ज़ज्ब करने की आदत डाल ऐ दिल  

              क्या  मिलेगा  खुदा  को  कोसते  रहने  से 
              बेहतर है अपनी आदत बदल डाल ऐ दिल    

तिल-तिल तुझे जलते रहना है  ऐ दिल 
ज़माने का शायद यही दस्तूर है ऐ दिल  
                                           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव