सोमवार, 23 मई 2011

बदनाम

कितना बदनाम हो चुका है
प्यार
जब भी कहता हूँ उससे
करता हूँ मैं तुमसे
प्यार
अठखेलियाँ करने लगती है
मुस्कान 
उसके चेहरे पर
जो आभाष करा जाती हैं
नहीं है विश्वास उसे
मेरे प्यार पर
कितना बदनाम हो चुका है
पुरुष
जब भी करता हूँ मैं उससे
कुछ दावे, कुछ वादे
भावुकता भरी कुछ बातें
एक तिरछी मुस्कराहट
तैर उठती है उसके होठों पर
जैसे कह रही हों 
तुम पुरुषों की आदत है ये
झूठे वादे करना
झूठे दावे करना 
झूठी तारीफ करना
और जब
सिद्ध हो जाय स्वार्थ
सब तोड़ देना
कितनी बदनाम हो चुकी है 
चाहत 
जब भी कहता हूँ मैं सिर्फ तुम्हारा हूँ 
मेरी सोच सिर्फ तुम हो
चाहत सिर्फ तुम हो
भावनाओं में सिर्फ तुम हो
उसकी एक हँसी 
कहने का प्रयत्न करती है 
जैसे 
"मर्द हो न 
मैं खूब समझती हूँ 
ऐसी बातों को
मैं खूब समझती हूँ 
ऐसे इरादों को
मर्दों की दिलफेंक आदतों को"
सच कहूँ --
निरुत्तर हो जाता हूँ
उसकी कथ्यों पर
उसके आरोपों पर 
अफ़सोस होता है
कितना बदनाम कर लिया है
हम पुरुषों ने अपने को
गर सच में
करता है कोई पुरुष
किसी नारी से 
सच्चा आत्मिक प्यार
तो
नहीं होता भरोसा
नारी को
उसके चाहत पर
व्यथित, कुंठित 
रह जाना नियति
हो जाती है
उस सच्चे इन्सान की
रह जाता है सोच कर
इच्छा है शायद यही
उस ईश्वर की.......
           --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  


गुरुवार, 12 मई 2011

आती हो

मेरे दामन के अंगारे कुरेदने आती हो
अब भी क्यूँ तसव्वुर पे छाने आती हो 

                इक कसक सी उठती है मेरे दिल में
                जब भी तुम याद मुझे आती हो

बहुत रुलाती हैं बीती मुलाकातें
मेरे ख्यालों में जब भी तुम आती हो 

                बिस्तर पर मचलने लगता हूँ रातों को 
                तुम ख्वाब में जब सामने आती हो 

जल उठता हूँ जुदाई की आग में मैं 
बिल्लौरी आँखों वाली याद जब आती हो 

               कितनी बेबसी महसूस करता हूँ मैं जब  
               पुरानी राहों पे तुम नज़र नहीं आती हो 

अब भी क्यूँ  तसव्वुर पे छाने आती हो 
मेरे दामन के अंगारे कुरेदने आती हो
                             --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

कहाँ ढूँढूँ

दिल को जो कर गया तन्हा उसे मैं कहाँ ढूँढूँ  
सुकूं दे सके दिल को सनम ऐसा कहाँ ढूँढूँ  

            हर इक के हाथ में नस्तर है यहाँ 
            अपने गम की दवा मैं कहाँ ढूँढूँ  

                     सर से पांव तलक सराबोर कर दे मुझे
                     ऐसा मोहब्बत का झरना मैं कहाँ ढूँढूँ  

                               चाहत ही रही दिल में इक अदद सनम की  
                               बेवफाओं की दुनिया में बावफा कहाँ ढूँढूँ  

                                            चारों तरफ छाई हुई है उदासियाँ 
                                            कब्रगाह में ख़ुशी का माहौल कहाँ ढूँढूँ  

                                                     सुकूं दे सके दिल को सनम ऐसा कहाँ ढूँढूँ 
                                                     दिल को जो कर गया तन्हा उसे मैं कहाँ ढूँढूँ  
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  
   

तिजारत

मुझे तुमसे प्यार है मुझे कहाँ इन्कार है    
तुझे प्यार करने को दिल मेरा बेकरार है 

                           पी कर मय तुम्हारी शरबती आँखों का
                           तिरे हुश्न का नशा मुझ पर सवार है 

                           छोड़ा जो हाथ तुमने राह-ए-मंजिल में 
                           राहों में छाया तल्ख़ वीरां अंधकार है 

                           ज़िन्दगी गुज़र ही जाएगी रोते सिसकते
                           पर तेरी बेवफाई मेरी वफ़ा पर उधार है 

                           कहते हो कुछ नहीं होता बिछुड़ कर इश्क़ में
                           शायद तुम्हारे लिए मोहब्बत व्यापार है  

तुझे प्यार करने को दिल मेरा बेकरार है
मुझे तुमसे प्यार है मुझे कहाँ इन्कार है
                                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव   

कथ्य - ९

"प्रेम"

एक इसे करता है तो अपने स्वार्थ के लिए 

और

दूसरा उसके स्वार्थ के लिए

जिसे वह सच्चे मन से चाहता है......

दोनों ही इस ध्येय को पाने के लिए

अपना सब कुछ गँवा देते हैं ----

अच्छे और बुरे की पहचान भूल कर

अपने स्वार्थ में, अपने ध्येय में 

सफल हो जाना चाहते हैं .......

गुरुवार, 5 मई 2011

भूलना

तुझे भूलने की कोशिश में तुझे याद किये जा रहा हूँ             
चाहता हूँ सताऊ तुम्हें खुद को सताए जा रहा हूँ

या रब तूने क्यूँ मिलाया मुझे उस ज़ालिम से
उसके इश्क की जुनूं में तबाह हुए जा रहा हूँ 

वो मज़े-मज़े की बातें वो मीठी मुलाकातें
तुम तो भूल गए मैं ही याद किये जा रहा हूँ 

किसी ने नज़र लगा दी मोहब्बत भरे आशियाँ को
अब तो हर जले तिनके पे अश्क बहाए जा रहा हूँ   

गर वो छोड़ तन्हा चला गया तो क्या हुआ
अब इस गम के भी जायके लिए जा रहा हूँ  

ख्वाबों से सजे पलकों को काट डाला तूने
क्या किया तूने मैं क्या किये जा रहा हूँ

क्या कभी भूले से भी याद करता होगा मुझे तू भी
निकल न जाये कहीं आह लबों को सिये जा रहा हूँ 

चाहता हूँ सताऊ तुम्हें खुद को सताए जा रहा हूँ
तुझे भूलने की कोशिश में तुझे याद किये जा रहा हूँ
                                                 --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

यादों के सहारे

उसकी यादों के सहारे जी रहा हूँ मैं  
उसके ग़मों का ज़हर पी रहा हूँ मैं  

                      सोचा नहीं क्या खोया क्या पाया
                      ज़िन्दगी से धोखा खा रहा हूँ मैं

                      न ही मिलता है न ही फोन करता है
                      उसके ही आस  में साँस ले रहा हूँ मैं 

                      वो खुद को समझता है कितना शातिर 
                      अपनी तबाही पे खूँ जला रहा हूँ मैं

                      थाम के हाथ फिर छोड़ दिया उसने  
                      क्या मकसद था बेवफा सोच रहा हूँ मैं 

उसके ग़मों का ज़हर पी रहा  हूँ मैं  
उसकी यादों के सहारे जी रहा हूँ मैं  
                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

सोमवार, 2 मई 2011

क्या कहिये

उन सुरमई आँखों की कशिश क्या कहिये   
संगमरमरी  बदन  की लचक क्या कहिये

मदहोश हो जाय दिल-ए-नादाँ  
उन नज़रों के तीर क्या कहिये

लहरा के चले पिय से मिलने नागिन
उसकी कमर के ख़म का क्या कहिये   

छुपा  हो  अर्ध-चाँद  बादलों  की  ओट  में  
उसके मुखड़े पे गेसुओं की लट क्या कहिये

बात-बात में बिखर उठती है लबों पे उसके 
रहस्य  में  लिपटी  मुस्कान  क्या  कहिये

जाने  कितने  दीवाने हैं उसके रूप के 
शोख चंचला की तकदीर क्या कहिये

यादें  हैं गुलशन के  गुलों  की तरह
उसकी यादों की महक क्या कहिये 

संगमरमरी  बदन  की लचक क्या कहिये
उन सुरमई आँखों की कशिश क्या कहिये   
                                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव