मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

कोई अपना नहीं है

इस  बड़े  शहर  में  कोई  अपना  नहीं  है    
जिसे कह सकूँ अपना ऐसा सपना नहीं है  

मेरी प्यास का एक भी कतरा बुझा सके
तिरे मैखाने  में शराब इतना भी नहीं है 

ला पिला और पिला जी  भर के पिला तू
नशा इसमें कहाँ ये शराब पुराना नहीं है

ऐ  साक़ी  थोड़ा सा  तू भी तो पी ले   
अब तो वो खुशनुमां ज़माना नहीं है

क्यूँ करती है तू फरमाईशें  इतनी
मेरे पास तो कोई खज़ाना नहीं है    

चाहे  जितने  भी जतन कर ले तू   
दिल मासूम मेरा  बिकना नहीं है 

जिसे कह सकूँ अपना ऐसा सपना नहीं है 
इस  बड़े  शहर  में  कोई  अपना  नहीं  है
                                 --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव    


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