गुरुवार, 15 सितंबर 2011

ये जिंदगी

कैसे कैसे रंग दिखाती है ज़िन्दगी
पा के सब कुछ खो देती है ज़िन्दगी !

अकेले ही आई तनहा रह गई ज़िन्दगी
पलक से टपका अश्क हो गई ज़िन्दगी !

बड़े शौक से बनाया उसे अपनी ज़िन्दगी
दिल का आशियाँ उजाड़ गई ज़िन्दगी !

भरी हुई है उसकी यादों से ये ज़िन्दगी
लम्हा-लम्हा रोती रहेगी ताउम्र ज़िन्दगी !

क्यूँ नहीं पा सकी रअनाइयाँ ज़िन्दगी
सुबहोशाम रिसती रहेगी  ये जिंदगी !
                              ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

रविवार, 4 सितंबर 2011

तेरी तो यही मंजिल है

अब और कहाँ जायेगा ऐ दिल तेरी तो यही मंजिल है
जो तूने चाहा है वही तो खुदा की नियामत वो दिल है

रख दी है अपनी ज़िन्दगी जिसके पैरों तले तूने
कोई और नहीं तेरी महबूब ही वो कातिल है

बारहा समझाया तुझे बदल ले तू खुद को ही
ऐ दिल लगता है तू खुद ही बहुत काहिल है

क्यों नहीं करने देता तू उसे उसकी मनमर्जी की
तू समझ ले वो तो घूमता फिरता एक बादल है

मोहब्बत है बलिदान, समर्पण का एक पर्याय
तू वही करता चल जो कहता उसका दिल है

जो तूने चाहा है वही तो खुदा की नियामत वो दिल है
अब और कहाँ जायेगा ऐ दिल तेरी तो यही मंजिल है
                                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


क्यों

दिल
बहुत परेशां है आज !
मन
बहुत संत्रस्त है आज !
जब भी सुनता हूँ
दुनिया की बातें
जब भी देखता हूँ
लोगों के आचरण
जाने क्यों
मन मेरा
क्षुब्ध हो उठता है
मुझे लगता है
जैसे
ये सब मेरे संग ही हो रहा है
ये सब मैं ही भुगत रहा हूँ
इन्सान
आखिर किधर जा रहा है
हमारी मर्यादाएँ
हमारी संस्कृति
कहाँ खोती जा रही हैं
क्यों नहीं
दर्शन होते अब
सच्चे प्रेम के ?
क्यों नहीं
मिलते हैं अब
निष्ठावान लोग ?
क्यों
ख़ुशी का आभाष करते हैं
दूसरों को धोखा दे कर ?
क्यों प्रसन्न होते हैं लोग
अपनी ही बातें
अपनी ही आदतें
अपनी तरह जी कर ?
क्यों नहीं जी पाते
लोग
दूसरों के लिए ?
क्यों नहीं समर्पित
हो पाते किसी एक के लिए ?
क्यों ऐसा होता है कि
भटकते रहते हैं लोग
एक डगर से दूसरी डगर ?
क्या मिलता है उन्हें
इस बेवफाई से ?
क्यों नहीं देते प्रतिफल
लोग
किसी की वफ़ा को वफ़ा से ?
क्यों नहीं चाहते लोग
जीवन में 
किसी एक को ?
क्यों नहीं जीते मर जाते
लोग
किसी एक के निमित्त ?
क्यों नहीं रमाते लोग
किसी एक में
अपने चित्त ?
लोगों की बातें
लोगों की हरकतें
देख सोचता हूँ
क्या
सभी चरित्रहीन हो चुके हैं
क्या
सभी भावनाशून्य हो चुके हैं ?
एक ही समय
सम्बन्ध रखना
अनेकों के संग
क्या यही प्रेम है ?
जीवन में
हर किसी से हर कहीं
बना लेना शारीरिक सम्बन्ध
क्या यही प्रेम है ?
नहीं --
ये प्रेम नहीं है !
ये तो पराकाष्ठा है
चरित्रहीनता की
अन्तिमता है
नैतिक पतन की !
फिर
क्यों संज्ञा देते हैं लोग
इसे प्रेम की
क्यों कहते फिरते हैं
हर किसी से लोग
" आई लव यू "
क्यों भंग करते हैं
पावनता लोग प्रेम की ?
क्यों नहीं ढूंढ लेते लोग
कोई अन्य अलंकरण
अपने कृत्य की ?
मुझे तो लगता है
यहाँ
हर औरत हर पुरुष
वेश्या हो चला है
इनमें जो बचा है
वो इनके आगे
असहाय हो चला है
यहाँ अब कोई मूल्य नहीं
भावनाओं की, एकनिष्ठा की
प्रेम की, विचारों की, त्याग की
समर्पण की, चाहत की, ईमानदारी की
परन्तु
क्यों लिख रहा हूँ ये सब
मैं ?
दुनियां की बातों से क्यों
दुखी हो उठता हूँ मैं ?
क्यों इतना भावुक
हो उठता हूँ अधिकतर
मैं ?
मैंने तो जो चाहा था
वो पाया है
अपनी प्रियतमा में
सोचता हूँ
कितना भाग्यशाली हूँ
मैं ?
                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

"वो" आयेगी

"वो" आयेगी
रंग हकीकत के
मेरे सपनों में भर जाएगी
डाल कर
अंखियों में मेरे अँखियाँ अपनी
वो
मदिरा पिला जाएगी
वो आयेगी
मैं फैला दूंगा बाँहें अपनी
उसके स्वागत में
वो समा जाएगी 
इनमें यूँ जैसे 
तरस रही हो इसके लिए
मुद्दत से
मैं चूमुंगा उसे
वो चूमेगी मुझे
मैं तप उठूँगा
वो तप उठेगी 
प्रेम-अतिरेक से
मैं मदहोश हो उठूँगा
उसके कायिक सुगंध से
वो आएगी 
मुझसे प्यारी-प्यारी
बतियाँ करेगी 
मुझे प्यार को तरसाएगी 
मैं डूबा रहूँगा 
उसकी मीठी-मीठी बतियों में 
खोया-खोया रहूँगा
उसकी नशीली अंखियों में
उसके हाथों की थिरकन 
जादू कर जाएँगी
मेरे तन-मन में
उसके अधरों की शाह्तूती  फांकें 
अतृप्त इच्छाएं मेरी
भडकायेंगी छन-छन में
वो आएगी
मैं चिपका रहूँगा
दूरभाष से
जाने कब कर बैठे 
वो संपर्क मुझसे
दूरभाष से
मैं उसे अपनी सुनाऊंगा
कुछ उसकी सुनूंगा
औ बाकी स्वयं  कह जाऊंगा
उसे
अपने प्रीत का आभास कराऊंगा
एक-एक वस्तु
जो की है मैंने एकत्र
उसके लिए
देकर उसे उसे मैं
आश्चर्य से भर दूंगा
औ'
उसके भोले चेहरे की
निखार निहारूंगा
वो मुझे चूम लेगी
अति  आनंद से
उसके गाल  आ  टिकेंगे 
मेरे काँधे पे
अति  प्यार से
वो मुझसे लिपट जाएगी
प्रेमातिरेग से
"वो" आएगी
मुझ पर प्यार अपना
लुटायेगी
बरस जाएगी मुझ पे
सावन की
बेक़रार बदली की तरह
मुखड़ा छुपा लेगी वो
मेरे सीने में
बादलों में  छुपते
चाँद की तरह
वो मुझे बताएगी
विरह काल की बातें
ख़ाली-ख़ाली, सूनी-सूनी
रातों की बातें
अपनों की, परायों की
घर की, बाहर की
मीठी-खट्टी बातें
वो बताएगी
अपनी भी "गुप्त-अन्तरंग"
प्यारी नशीली बातें
वो कुछ भी नहीं छुपाएगी मुझसे
वो सब कुछ निःसंकोच
कह जाएगी मुझसे
मेरा भी "उदर" फूल रहा है
बातें ढेर एकत्र होने से
मैं भी उगल दूंगा सारे
उसके स्वर्नेन्द्रियों में
सोचता हूँ क्या कहूँगा उससे
मैं "ये" कहूँगा उससे
मैं "वो" कहूँगा उससे
नहीं ...... नहीं ........
मैं सब कुछ कह दूंगा उससे
वो घूरेगी मुझे
आँखें तरेरेगी मुझे
विस्मय दर्शाएगी मुझे
प्यार भी करेगी मुझे
बातों-बातों में
योजना बनायेंगे साथ-साथ
कैसे रहेंगे, कैसे जियेंगे
हम
दांपत्य जीवन में !
"वो" आएगी
संग-संग टहला करूँगा 
मैं उन्हीं
पुरानी जानी-पहचानी राहों में
"वो" आएगी
मेरे दिन रंगीन हो जायेंगे
मेरी रातें श्रृंगारित हो उठेंगी
मेरे इर्द-गिर्द की हवाओं में
सुगंध उसकी ताजगी
भर जाएगी
परन्तु
वो शायद मुझको समय
नहीं दे पायेगी उतना
कहने, सुनने, करने को काफी हों
बातें ये जितना
दिन फिर पंख लगा कर उड़ जायेंगे
रातें फिर चुपके से सरक जाएँगी 
एक बार फिर
हमारी बातें पूरी नहीं
हो पाएंगी
हम मन मसोस 
रह जायेंगे
एक बार पुनः
हमारे अरमान अधूरे
रह जायेंगे
हम मिल कर भी
ना मिलने जैसा गम 
मनाएंगे
तदापि
मुझे प्रतीक्षा है उसके आने की
क्योंकि
पल भर को ही सही
"वो" आएगी
रंग हकीकत के कुछ
मेरे सपनों में
भर जाएगी  !!!
                   ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव