मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

आंसू हो गई ज़िन्दगी

क्या सोचा और क्या हो गई ज़िन्दगी
मुस्कान से टपका आँसू हो गई ज़िन्दगी

नींद भरी है आँखों में पर नींद नहीं आती
कडुवाहट भरी नींद हो गई ज़िन्दगी


कहते हैं गुज़रा वक़्त नहीं लौटता कभी
काश फिर शुरू कर पाता गई ज़िन्दगी


पास हो के मेरी नहीं है वो
आह कितना छल गई ज़िन्दगी


सब कुछ लगता है पराया-पराया सा
जो नहीं चाहा था वो हो गई ज़िन्दगी


सज़ावार हूँ गुनाहगार हूँ तेरा मैं
बक्श दे मुझे तनहा ऐ ज़िन्दगी


गुज़रा हुआ कल ख्वाब लगता है इक
सोचता हूँ हाथ बढ़ा छू लूँ तुझे ज़िन्दगी


चैन की नींद सो रहा है वो मेरे बाजू में
इक मैं ही तुझे सोच रहा हूँ ज़िन्दगी 

मुस्कान से टपका आँसू हो गई ज़िन्दगी
क्या सोचा और क्या हो गई ज़िन्दगी
                             --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

क्या से क्या

ज़िन्दगी क्या से क्या हो गई है
ये तो उसकी तरह बेवफा हो गई है

सोचा था फूलों की तरह महकेगी ज़िन्दगी
ये क्या हुआ ये तो इक जेलखाना हो गई है

हर तरफ उदासियों औ' सन्नाटे का आलम है
ज़िन्दगी कितनी बदमज़ा हो गई है

अपनी करतूतों की सजा भुगत रहा हूँ
ज़िन्दगी तो अब ज़हन्नुम हो  गई है

वो आज मेरे पहलू में मौजूद है मगर 
हमारे दरमियाँ  कितनी दूरियाँ हो गई हैं

अबसे पहले तो ऐसा कभी न हुआ था
हमारी ख़ामोशी कितनी लम्बी हो गई है

ये तो उसकी तरह बेवफा हो गई है
ज़िन्दगी क्या से क्या हो गई है
                     --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव






शनिवार, 10 दिसंबर 2011

दिल में ज़ज्ब

हर गम को दिल में ज़ज्ब करता चला गया
उसकी खातिर खुद को मारता चला गया

बेवफाई कर के उसका दावा इश्क है मुझी से
इस फरेब पर भी यकीन करता चला गया


किससे कहूँ अपनी बातें हल्का करूँ दुःख कैसे 
अपनी गजलों को हमराज़ बनाता चला गया


कितनी आरजुएँ कितनी उमंगें थी दिल में
उसकी बेवफाई में सब डूबता चला गया


मेरे ही दिल की टूटी किरचें पड़ी हैं राहों में
इनसे बचने की कोशिशें करता चला गया


उसने मुझे नहीं किसी और को चाहा किया
अपने आहत मन को सहलाता चला गया 

उसकी खातिर खुद को मारता चला गया
हर गम को दिल में ज़ज्ब करता चला गया
                                  --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 



शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

गम के साये

ज़िन्दगी में गम के साये पलने लगे हैं
उसकी बेवफाई से हम सुलगने लगे हैं

                   हमने सोचा था वो सिर्फ हमारे हैं
                   वो तो गैरों के भी होने लगे हैं

कितना दिलकश था जीवन का रंग
इनमें खून-ए-दिल  घुलने लगे हैं

                 सब कुछ खुशनुमां खुशनुमां था 
                 बेवफाई से कब्रिस्तान बनने लगे हैं

देखो ज़रा मेरी  किस्मत के लेख
जिन्हें दिया प्यार वो दगा देने लगे हैं

                 चाहत है मोहब्बत भरी ज़िन्दगी की
                 कैसे हो मुमकिन हम ये सोचने लगे हैं 

उसकी बेवफाई से हम सुलगने लगे हैं
ज़िन्दगी में गम के साये पलने लगे हैं
                                  --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 



पता नहीं

उतार दे जहर 
जब कोई किसी के दिल में
कैसे संभाले
भला कोई
स्वयं को ऐसी हालत में
कोई
भला क्या जाने
उसके दिल की हालत
जिसकी दुनिया
लुटाई
उसी की दुनिया ने
कोई ज़रा बैठ कर तो देखे
ग़मों की भीड़ में
ऐसे में गम 
बढ़ते ही जाते हैं
गम भी हमें
कितना सताते हैं
कितना रुलाते हैं
कितना छलते हैं
हर पल जी होता है
मर जाएँ मिट जाएँ
ये दुनियां ही छोड़ जाएँ
ये गम ये दुःख ये पीड़ा
क्यूँ होती है
संभवतः
स्वयं को सीमाओं में बांध लेना ही
कारण है इन सबके
तो फिर
ये सीमायें क्यूँ बंधी हैं
हम
इन सीमाओं से
क्यूँ बांध जाते हैं
सोचो कि
हम यदि ऐसा करेंगे तो
वो भी ऐसा करेगा
हम यदि ऐसा नहीं करेंगे तो
वो भी ऐसा नहीं करेगा
करना भी चाहेगा
तो
ईश्वर उसे रोकेगा
परन्तु स्वयं के न  करने पर भी
दूसरा कर जाता है
तो
कौन गलत है ?
न करने वाला ?
करने वाला ?
या
ऊपर वाला ?
हँसना, हँसना, हँसना ....
ही उत्तर है इसका
ऐसे में 
यदि चाहो तो भी
नहीं निकलते आँखों से आंसू
हरसंभव प्रयत्नों के बाद भी
निकलते भी हैं तो तेजाब की तरह
शायद दिल में उतरा ज़हर
आंसुओं को भी
तेजाब बना देता हो
लेकिन
प्यार में तो 
जैसे को तैसा 
जरुरी नहीं
मैं 
कैसे उसे प्यार करना 
छोड़ दूँ
वो तो मेरी ज़िन्दगी है
वो मेरी ज़रूरत है
वो कुछ भी करे मेरे संग
मैं तो
करता रहूँगा वफ़ा
उसके संग
स्वयं तो जलता रहूँगा
पर उसे
अपनी आँच से भी बचाए रखूँगा
पता नहीं वो
मेरे प्यार को अब भी
आदर दे सकेगी या नहीं
पता नहीं वो अब भी
मुझसे वफ़ा कर सकेगी या नहीं
या
यूँ ही मुझे उम्र भर
सजा दे-दे कर
सताती रहेगी
रुलाती रहेगी ....
                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

खाक कर डालें

यही है गर ज़िन्दगी तो इसे खाक कर डालें
दुखी करती हैं गर सोचें तो उसे जला डालें

इस शहर का हर बाशिंदा बेवफा हो चला है
आओ इस शहर में हम कत्लेआम मचा डालें

ज़ेहन में ज़हर भर जाता है दुनिया की रवायतों से
अब क्यूँ न हम खुद को नीलकंठ बना डालें

किसी को क़द्र नहीं अब किसी के पाक ज़ज्बातों की
ऐ दोस्त आओ हम खुद को भी औरों जैसा ही बना डालें

किससे कहें ज़ज्बात-ए-दिल कोई सुनता ही नहीं
आओ ऐसा करें गजलों को हमराज बना डालें

दुखी करती हैं गर सोचें तो उसे जला डालें
यही है गर ज़िन्दगी तो इसे खाक कर डालें
                        ------- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 











गुरुवार, 15 सितंबर 2011

ये जिंदगी

कैसे कैसे रंग दिखाती है ज़िन्दगी
पा के सब कुछ खो देती है ज़िन्दगी !

अकेले ही आई तनहा रह गई ज़िन्दगी
पलक से टपका अश्क हो गई ज़िन्दगी !

बड़े शौक से बनाया उसे अपनी ज़िन्दगी
दिल का आशियाँ उजाड़ गई ज़िन्दगी !

भरी हुई है उसकी यादों से ये ज़िन्दगी
लम्हा-लम्हा रोती रहेगी ताउम्र ज़िन्दगी !

क्यूँ नहीं पा सकी रअनाइयाँ ज़िन्दगी
सुबहोशाम रिसती रहेगी  ये जिंदगी !
                              ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

रविवार, 4 सितंबर 2011

तेरी तो यही मंजिल है

अब और कहाँ जायेगा ऐ दिल तेरी तो यही मंजिल है
जो तूने चाहा है वही तो खुदा की नियामत वो दिल है

रख दी है अपनी ज़िन्दगी जिसके पैरों तले तूने
कोई और नहीं तेरी महबूब ही वो कातिल है

बारहा समझाया तुझे बदल ले तू खुद को ही
ऐ दिल लगता है तू खुद ही बहुत काहिल है

क्यों नहीं करने देता तू उसे उसकी मनमर्जी की
तू समझ ले वो तो घूमता फिरता एक बादल है

मोहब्बत है बलिदान, समर्पण का एक पर्याय
तू वही करता चल जो कहता उसका दिल है

जो तूने चाहा है वही तो खुदा की नियामत वो दिल है
अब और कहाँ जायेगा ऐ दिल तेरी तो यही मंजिल है
                                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


क्यों

दिल
बहुत परेशां है आज !
मन
बहुत संत्रस्त है आज !
जब भी सुनता हूँ
दुनिया की बातें
जब भी देखता हूँ
लोगों के आचरण
जाने क्यों
मन मेरा
क्षुब्ध हो उठता है
मुझे लगता है
जैसे
ये सब मेरे संग ही हो रहा है
ये सब मैं ही भुगत रहा हूँ
इन्सान
आखिर किधर जा रहा है
हमारी मर्यादाएँ
हमारी संस्कृति
कहाँ खोती जा रही हैं
क्यों नहीं
दर्शन होते अब
सच्चे प्रेम के ?
क्यों नहीं
मिलते हैं अब
निष्ठावान लोग ?
क्यों
ख़ुशी का आभाष करते हैं
दूसरों को धोखा दे कर ?
क्यों प्रसन्न होते हैं लोग
अपनी ही बातें
अपनी ही आदतें
अपनी तरह जी कर ?
क्यों नहीं जी पाते
लोग
दूसरों के लिए ?
क्यों नहीं समर्पित
हो पाते किसी एक के लिए ?
क्यों ऐसा होता है कि
भटकते रहते हैं लोग
एक डगर से दूसरी डगर ?
क्या मिलता है उन्हें
इस बेवफाई से ?
क्यों नहीं देते प्रतिफल
लोग
किसी की वफ़ा को वफ़ा से ?
क्यों नहीं चाहते लोग
जीवन में 
किसी एक को ?
क्यों नहीं जीते मर जाते
लोग
किसी एक के निमित्त ?
क्यों नहीं रमाते लोग
किसी एक में
अपने चित्त ?
लोगों की बातें
लोगों की हरकतें
देख सोचता हूँ
क्या
सभी चरित्रहीन हो चुके हैं
क्या
सभी भावनाशून्य हो चुके हैं ?
एक ही समय
सम्बन्ध रखना
अनेकों के संग
क्या यही प्रेम है ?
जीवन में
हर किसी से हर कहीं
बना लेना शारीरिक सम्बन्ध
क्या यही प्रेम है ?
नहीं --
ये प्रेम नहीं है !
ये तो पराकाष्ठा है
चरित्रहीनता की
अन्तिमता है
नैतिक पतन की !
फिर
क्यों संज्ञा देते हैं लोग
इसे प्रेम की
क्यों कहते फिरते हैं
हर किसी से लोग
" आई लव यू "
क्यों भंग करते हैं
पावनता लोग प्रेम की ?
क्यों नहीं ढूंढ लेते लोग
कोई अन्य अलंकरण
अपने कृत्य की ?
मुझे तो लगता है
यहाँ
हर औरत हर पुरुष
वेश्या हो चला है
इनमें जो बचा है
वो इनके आगे
असहाय हो चला है
यहाँ अब कोई मूल्य नहीं
भावनाओं की, एकनिष्ठा की
प्रेम की, विचारों की, त्याग की
समर्पण की, चाहत की, ईमानदारी की
परन्तु
क्यों लिख रहा हूँ ये सब
मैं ?
दुनियां की बातों से क्यों
दुखी हो उठता हूँ मैं ?
क्यों इतना भावुक
हो उठता हूँ अधिकतर
मैं ?
मैंने तो जो चाहा था
वो पाया है
अपनी प्रियतमा में
सोचता हूँ
कितना भाग्यशाली हूँ
मैं ?
                       --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

"वो" आयेगी

"वो" आयेगी
रंग हकीकत के
मेरे सपनों में भर जाएगी
डाल कर
अंखियों में मेरे अँखियाँ अपनी
वो
मदिरा पिला जाएगी
वो आयेगी
मैं फैला दूंगा बाँहें अपनी
उसके स्वागत में
वो समा जाएगी 
इनमें यूँ जैसे 
तरस रही हो इसके लिए
मुद्दत से
मैं चूमुंगा उसे
वो चूमेगी मुझे
मैं तप उठूँगा
वो तप उठेगी 
प्रेम-अतिरेक से
मैं मदहोश हो उठूँगा
उसके कायिक सुगंध से
वो आएगी 
मुझसे प्यारी-प्यारी
बतियाँ करेगी 
मुझे प्यार को तरसाएगी 
मैं डूबा रहूँगा 
उसकी मीठी-मीठी बतियों में 
खोया-खोया रहूँगा
उसकी नशीली अंखियों में
उसके हाथों की थिरकन 
जादू कर जाएँगी
मेरे तन-मन में
उसके अधरों की शाह्तूती  फांकें 
अतृप्त इच्छाएं मेरी
भडकायेंगी छन-छन में
वो आएगी
मैं चिपका रहूँगा
दूरभाष से
जाने कब कर बैठे 
वो संपर्क मुझसे
दूरभाष से
मैं उसे अपनी सुनाऊंगा
कुछ उसकी सुनूंगा
औ बाकी स्वयं  कह जाऊंगा
उसे
अपने प्रीत का आभास कराऊंगा
एक-एक वस्तु
जो की है मैंने एकत्र
उसके लिए
देकर उसे उसे मैं
आश्चर्य से भर दूंगा
औ'
उसके भोले चेहरे की
निखार निहारूंगा
वो मुझे चूम लेगी
अति  आनंद से
उसके गाल  आ  टिकेंगे 
मेरे काँधे पे
अति  प्यार से
वो मुझसे लिपट जाएगी
प्रेमातिरेग से
"वो" आएगी
मुझ पर प्यार अपना
लुटायेगी
बरस जाएगी मुझ पे
सावन की
बेक़रार बदली की तरह
मुखड़ा छुपा लेगी वो
मेरे सीने में
बादलों में  छुपते
चाँद की तरह
वो मुझे बताएगी
विरह काल की बातें
ख़ाली-ख़ाली, सूनी-सूनी
रातों की बातें
अपनों की, परायों की
घर की, बाहर की
मीठी-खट्टी बातें
वो बताएगी
अपनी भी "गुप्त-अन्तरंग"
प्यारी नशीली बातें
वो कुछ भी नहीं छुपाएगी मुझसे
वो सब कुछ निःसंकोच
कह जाएगी मुझसे
मेरा भी "उदर" फूल रहा है
बातें ढेर एकत्र होने से
मैं भी उगल दूंगा सारे
उसके स्वर्नेन्द्रियों में
सोचता हूँ क्या कहूँगा उससे
मैं "ये" कहूँगा उससे
मैं "वो" कहूँगा उससे
नहीं ...... नहीं ........
मैं सब कुछ कह दूंगा उससे
वो घूरेगी मुझे
आँखें तरेरेगी मुझे
विस्मय दर्शाएगी मुझे
प्यार भी करेगी मुझे
बातों-बातों में
योजना बनायेंगे साथ-साथ
कैसे रहेंगे, कैसे जियेंगे
हम
दांपत्य जीवन में !
"वो" आएगी
संग-संग टहला करूँगा 
मैं उन्हीं
पुरानी जानी-पहचानी राहों में
"वो" आएगी
मेरे दिन रंगीन हो जायेंगे
मेरी रातें श्रृंगारित हो उठेंगी
मेरे इर्द-गिर्द की हवाओं में
सुगंध उसकी ताजगी
भर जाएगी
परन्तु
वो शायद मुझको समय
नहीं दे पायेगी उतना
कहने, सुनने, करने को काफी हों
बातें ये जितना
दिन फिर पंख लगा कर उड़ जायेंगे
रातें फिर चुपके से सरक जाएँगी 
एक बार फिर
हमारी बातें पूरी नहीं
हो पाएंगी
हम मन मसोस 
रह जायेंगे
एक बार पुनः
हमारे अरमान अधूरे
रह जायेंगे
हम मिल कर भी
ना मिलने जैसा गम 
मनाएंगे
तदापि
मुझे प्रतीक्षा है उसके आने की
क्योंकि
पल भर को ही सही
"वो" आएगी
रंग हकीकत के कुछ
मेरे सपनों में
भर जाएगी  !!!
                   ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव








 

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

स्वप्न

एक स्वप्न
देखा करता था
किशोरावस्था से ही मैं
एक मूरत
संजोया करता था
अपनी सजनी की
अपनी कल्पनाओं में मैं
प्रायः सोचता था
असंभव है मिलना
मेरी कल्पना सी
जीवन-संगिनी का
पर
मैं तो
अचंभित हूँ
देख कर उस सलोनी को
जो
कर गई है घायल मेरे दिल को
साकार रूप है वो
मेरी कल्पनाओं की
अदभुत कृत्य है वो
सृष्टि रचयिता ब्रह्मा की
वो तो दिखती है किसी देवपरी सी
सपनों की सुन्दर राजकुमारी सी
लुटाती रहती है वो मुझ पर
अपना प्रेम-धन
अति सहृदयता से
झुलाती रहती  है मुझको बैठा कर
अपने प्रीत-हिंडोले पर
वो प्रचंड वेग से
जब-जब होता हूँ मैं सन्निकट उसके
छलकता रहता है प्रेम
उसके हिय-घट से
परन्तु
जब मैं नहीं होता निकट उसके
बंद कर लेती है हिय-मुख
वो इतनी दृढ़ता से
कि
छलक न जाये
इधर-उधर एक बूँद भी  
चुरा न ले कोई 
उसमें से एक बूँद भी 
तभी तो
सुदूर बैठा 
तरस जाता हूँ मैं भी
तकता रहता हूँ
चकोर की तरह
प्रेमवर्षा की आस में 
उस चाँद को मैं भी
अब तो
प्रफुल्लित है मन मेरा
पाकर सानिंध्य उसका
सुवासित हवा के झोंकों सी
नव-जीवन भर गई है वो
मेरे दिल की बगिया में
पूछते हैं लोग मुझसे
कैसी है वो
क्या कहूँ कैसी है वो
ठीक मेरी कल्पना सी है वो
वही हंसिनी सी लचकती चाल
कांधों पे अठखेलियाँ करते बाल
नासिका पे "मैं" सा लगता तिल
प्रेम से छलकता हुआ दिल
प्रीत-सन्देश देती हुई नज़र
बांहों में मचलने को आतुर कमर
सुनो तो
क्या कहती है वो हिरनाक्षी
अपना ही
बनाये रखना चाहती है वो
मुझमें ही
समाये रहना चाहती है वो
उसकी बातें हैं इसकी साक्षी
कहती है -
आप सिर्फ मेरे हैं सिर्फ मेरे
मैं सिर्फ आपकी हूँ सिर्फ आपकी
उसकी ये बातें
बढ़ा देती हैं धड़कने मेरे दिल की
छेड़ जाती हैं तारें मेरे हिय की
मैंने कहा --
पूर्व जन्म के हैं प्रेमी हम
साथ जियेंगे साथ मरेंगे
आ ले लें संग-संग
ये कसम प्यार में हम
मैं हूँ तुम्हारा
मेरा प्यार है तुम्हारा
ये चाहत तुम्हारी
मेरी भावनाएं तुम्हारी
मेरी सोचें तुम्हारी
मेरे जीवन की हर ख़ुशी तुमसे
कभी न बंटेंगे
ये सभी इस सृष्टि में किसी से
किन्तु
मैं दुखित हूँ
मैं चिढ़ा हुआ हूँ
ईश्वर से
क्यों मिलाया उसने मुझे
उससे
इस जनम में भी इतने विलम्ब से
क्यों
भटकाता रहा वो मुझे
जीवन के उन स्वर्णिम
पलों में
इधर-उधर दूर
उसके सानिंध्य से
सोचता हूँ--
कितना अच्छा होता
यदि
वो मुझसे मिलती
किशोरावस्था में
अनगिनत इन्द्रधनुषी रंग
बिखर जाते
मेरे उन रिक्त क्षणों में
तदापि
कुछ तो सुखद शांति है
रंग है, उल्लास है, उमंग है
उसके आ जाने से
जीवन की
इस ढलती संध्या-बेला में
ऐ ईश्वर !!
मैं आभारी हूँ तेरे इस
अल्प-कृपा पर
परमपिता
अब से रखे रहना
अपने आशीर्वाद-हस्त
हमारे संयुक्त सर
औ'
दांपत्य जीवन पर
हे विष्णु-लक्ष्मी !!
हमारा भी दांपत्य जीवन
हो
अक्षुण, अमर, एकनिष्ठ
ठीक आपकी तरह
हम भी
जब भी जन्म लें
एक दूसरे को पायें
पति-पत्नी के रूप में
ठीक आपकी तरह .....
              ---  संजय स्वरुप श्रीवास्तव




रविवार, 24 जुलाई 2011

पगला मन

मन की
मत पूछो रे  
मन तो है
अति पागल  
कब क्या सोचे ये    
कब क्या कह डाले
अब तक
कौन जान सका है
किसकी बातें भा जाये
किसकी बातें लग जाये
बुरी
कौन समझ सका है
अभी-अभी लगा है अच्छा ये
अगले ही पल लगेगा वीभत्स 
कौन समझ सका है
अरे पगले
इस संसार में
बड़ा कठिन है बचाए रखना
मन को
किसी ठेस से
इस संसार में
हर कहीं से चलती हैं
ईंट-पत्थरों की बातें 
सुरक्षित रख सकता है
तो रख ले मन को
उसके ठेस से
कौन है यहाँ अपना
कौन है पराया
मत सोचो रे मन
सब हैं तेरे दुश्मन
छुपे हुए दोस्तों की
खाल में 
इतना समझ ले रे मन
धोखे में न आना
उनके फंदे में न आना 
अपना-पराया सब है बेगाना
अकेले ही आया है तू
अकेले ही है जाना
समझ सके इसे तू
तो
सार्थक होगा मेरा समझाना
मन की नैया
जीवन के सागर में
डाल तो दी तूने 
इस तट से उस तट तक
जाने की
सोच तो ली तूने
परन्तु
नैया खेने को पतवार
क्यों न ली तूने 
अरे पगले मन
क्या तू बीच सागर
डूब नहीं जायेगा
उस तट तक
पहुँचने का तेरा स्वप्न
टूट नहीं जायेगा
क्या कहा ...???
तेरा पतवार
किसी और ने ले लिया है ??
अरे पगले
तो तूने दिया ही क्यों
दिया ही तो
दूसरा लिया नहीं क्यों
क्या कहा ..... ??
तू दूसरे पतवार को 
नहीं बना सकता हमसफ़र 
डूबे या उतराए
तू यूँ ही चलता रहेगा
पतवार के बिना
यात्रा करता रहेगा ...?
अरे मन
तब तो
तुझे सब सचमुच ही
पगला कहेंगे रे 
निरा पगला
क्या कहा ... ??
कहते रहें
तुझे नहीं इसकी चिंता
तेरी बिछुड़ी पतवार
ना समझे ऐसा 
तू है मात्र उसका
नहीं किसी और का
उससे किया प्रण
निभाया तूने
वो ये ही जाने
तुझे है इसी की चिंता .... ??
अरे पगले मन
तू तो है
सचमुच निराला
तूने तो भर रखा है
स्वयं में उजाला
रे मन
तू इस उजाले को
बांटता चल
औरों के मन को
प्रकाशवान करता चल
और यूँ ही
पतवार के बिना
सागर-यात्रा 
करता चल
करता चल
             --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 






गुरुवार, 21 जुलाई 2011

संभवतः

विरक्ति सी हो गई है
जीवन की हर वस्तु से
मन अशांत हो चला है
कष्टप्रद जीवन से
जाने क्यों 
पराया लगने लगा है
सब कुछ यहाँ 
जाने क्यों पतझड़ का मौसम
आ गया है
असमय ही यहाँ
क्या कोई उमंग
कोई ख़ुशी
नहीं रह सकती चिर
मेरे जीवन में
क्यों बारम्बार
शक्ल 
बदल जाया करते हैं 
चेहरों के दर्पण में 
ऐसे ही जलते रहना है 
संभवतः
मुझे मृत्यु-द्वार तक
पहुँचते हुए !
कोई साथी नहीं
कोई अपना नहीं
जो कुछ भी आएगा
यूँ ही आएगा
यूँ ही चला जायेगा 
प्रसन्नता का कोई भी 
आगमन
मुझे प्रसन्न नहीं कर सकेगा
सखाओं का कोई भी
प्रवचन
मुझे सांत्वना नहीं दे सकेगा
सोचता हूँ तो लगता है
जैसे
फटने के सन्निकट हैं
शिराएँ मेरे मस्तिष्क की
अब तो कामना है मुझे
उस जगत-पिता से
अपने मृत्यु की
आह ......
ये मृत्यु आती तो सही
मेरी चिर-सखी
बनती तो सही
संसार की इन झंझावातों से
मुक्ति दिलाती तो सही
कोई और नहीं 
पढ़ सका समझ सका
इस कवि-हृदय को
मृत्यु ही इसे
समझती तो सही 
                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 




अंत

संभवतः
आज अंत है ये
हमारे मिलन का
अंतिम यही छोर
है हमारे बंधन का
दूर मुझसे जब तुम
जा रहे थे
मुस्कुराते हुए
सच जानो
तुम्हे ही निर्लेप
तक रहा था
अंखियों में
प्यास लिए हुए
अकस्मात् यूँ होगा ये
मैंने कब सोचा था
छोड़ कर चले जाओगे
इतनी शांति से
ऐसा तो नहीं सोचा था
तुम्हारी मूकता
बोध करा रही है
मुझे मेरे अपराध की
चाहता हूँ कुछ तो सजा मिले
मुझे मेरे अपराध की
किन्तु कितने
निर्दय न्यायाधिकारी
हो तुम भी
छोड़ दिया मुझे मेरे हाल पर
दे कर सजा सोचने की
मेरे अपराध की
ह्रदय विह्वल है तुम्हारे लिए
कर्ण विकल हैं
तुम्हारे स्वर के लिए
कहो तो सखी --
क्या इतने पर भी तुम न आओगी
क्या इतनी निष्ठुर हो
अब मेरे निकट न आओगी
आओ तो सही
हिय-क्रंदन समझो तो सही
ह्रदय-सुर छेड़ो तो सही
बहुत कठोर हो तुम
जानता  हूँ मैं
तदापि
प्रेम है तुम्हे मुझसे
मानता हूँ मैं
प्रिये !!
क्या सच रूठ गई हो
मुझसे तुम
क्या सच नहीं मिलोगी
मुझसे तुम
मैं तुम्हे चाहता हूँ
कहूँ तुमसे ये यदि
अब मैं
अवश्य तुम्हे हँसी आएगी
सुन कर मेरी बात
पर सुन लो सच नहीं
कुछ
इसके बाद कोई और बात
              --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव