शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

स्वप्न

एक स्वप्न
देखा करता था
किशोरावस्था से ही मैं
एक मूरत
संजोया करता था
अपनी सजनी की
अपनी कल्पनाओं में मैं
प्रायः सोचता था
असंभव है मिलना
मेरी कल्पना सी
जीवन-संगिनी का
पर
मैं तो
अचंभित हूँ
देख कर उस सलोनी को
जो
कर गई है घायल मेरे दिल को
साकार रूप है वो
मेरी कल्पनाओं की
अदभुत कृत्य है वो
सृष्टि रचयिता ब्रह्मा की
वो तो दिखती है किसी देवपरी सी
सपनों की सुन्दर राजकुमारी सी
लुटाती रहती है वो मुझ पर
अपना प्रेम-धन
अति सहृदयता से
झुलाती रहती  है मुझको बैठा कर
अपने प्रीत-हिंडोले पर
वो प्रचंड वेग से
जब-जब होता हूँ मैं सन्निकट उसके
छलकता रहता है प्रेम
उसके हिय-घट से
परन्तु
जब मैं नहीं होता निकट उसके
बंद कर लेती है हिय-मुख
वो इतनी दृढ़ता से
कि
छलक न जाये
इधर-उधर एक बूँद भी  
चुरा न ले कोई 
उसमें से एक बूँद भी 
तभी तो
सुदूर बैठा 
तरस जाता हूँ मैं भी
तकता रहता हूँ
चकोर की तरह
प्रेमवर्षा की आस में 
उस चाँद को मैं भी
अब तो
प्रफुल्लित है मन मेरा
पाकर सानिंध्य उसका
सुवासित हवा के झोंकों सी
नव-जीवन भर गई है वो
मेरे दिल की बगिया में
पूछते हैं लोग मुझसे
कैसी है वो
क्या कहूँ कैसी है वो
ठीक मेरी कल्पना सी है वो
वही हंसिनी सी लचकती चाल
कांधों पे अठखेलियाँ करते बाल
नासिका पे "मैं" सा लगता तिल
प्रेम से छलकता हुआ दिल
प्रीत-सन्देश देती हुई नज़र
बांहों में मचलने को आतुर कमर
सुनो तो
क्या कहती है वो हिरनाक्षी
अपना ही
बनाये रखना चाहती है वो
मुझमें ही
समाये रहना चाहती है वो
उसकी बातें हैं इसकी साक्षी
कहती है -
आप सिर्फ मेरे हैं सिर्फ मेरे
मैं सिर्फ आपकी हूँ सिर्फ आपकी
उसकी ये बातें
बढ़ा देती हैं धड़कने मेरे दिल की
छेड़ जाती हैं तारें मेरे हिय की
मैंने कहा --
पूर्व जन्म के हैं प्रेमी हम
साथ जियेंगे साथ मरेंगे
आ ले लें संग-संग
ये कसम प्यार में हम
मैं हूँ तुम्हारा
मेरा प्यार है तुम्हारा
ये चाहत तुम्हारी
मेरी भावनाएं तुम्हारी
मेरी सोचें तुम्हारी
मेरे जीवन की हर ख़ुशी तुमसे
कभी न बंटेंगे
ये सभी इस सृष्टि में किसी से
किन्तु
मैं दुखित हूँ
मैं चिढ़ा हुआ हूँ
ईश्वर से
क्यों मिलाया उसने मुझे
उससे
इस जनम में भी इतने विलम्ब से
क्यों
भटकाता रहा वो मुझे
जीवन के उन स्वर्णिम
पलों में
इधर-उधर दूर
उसके सानिंध्य से
सोचता हूँ--
कितना अच्छा होता
यदि
वो मुझसे मिलती
किशोरावस्था में
अनगिनत इन्द्रधनुषी रंग
बिखर जाते
मेरे उन रिक्त क्षणों में
तदापि
कुछ तो सुखद शांति है
रंग है, उल्लास है, उमंग है
उसके आ जाने से
जीवन की
इस ढलती संध्या-बेला में
ऐ ईश्वर !!
मैं आभारी हूँ तेरे इस
अल्प-कृपा पर
परमपिता
अब से रखे रहना
अपने आशीर्वाद-हस्त
हमारे संयुक्त सर
औ'
दांपत्य जीवन पर
हे विष्णु-लक्ष्मी !!
हमारा भी दांपत्य जीवन
हो
अक्षुण, अमर, एकनिष्ठ
ठीक आपकी तरह
हम भी
जब भी जन्म लें
एक दूसरे को पायें
पति-पत्नी के रूप में
ठीक आपकी तरह .....
              ---  संजय स्वरुप श्रीवास्तव