मेरी सोचें
कितनी निरर्थक
हो चुकी हैं
ठीक मेरी ही तरह....
जो भी सोचता हूँ
सोचते समय
यही सोचता हूँ
कि मेरी ये सोच कितनी सार्थक है ?
पर जाने क्यों
मेरी हर नई सोच
मेरी पुरानी सोचों को
निरर्थक ठहरा देती हैं
सोचता हूँ मैं कि
क्या मेरा हर सोच को
सार्थक सोच समझना
सार्थक सोच है ?
मेरे किसी सोच का
क्या कोई आधार है ?
क्या मैं कुछ भी सोचते समय
उस सोच के बारे में
कुछ सोचता भी हूँ ??
या फिर मात्र
सोचता ही हूँ,
सोच के बारे में नहीं सोचता..
सोच के विषय में न सोचना ही
कारण हैं संभवतः
मेरी सोचों की असफलता के..
आखिर
मैं यही सोच रहा हूँ
कि मेरी सोचों ने ही
पीड़ा के रंग भरे हैं
शायद मेरी सोचों में,
तभी तो मैं
सोचता रहता हूँ
अपनी सोचों के बारे में..
मैं बहुधा सोचता हूँ कि
क्या कोई राह है भी
छुटकारा पाने का मेरा
इन बेरहम सोचों से ??
या फिर
इन सोचों की चिता पर ही
जल जाना है सोचते हुए..
मुझे तो यूँ लगता है
सोचें ही मेरी ज़िन्दगी हैं
सोचें ही मेरी मृत्यु हैं
क्योंकि
इन सोचों से निकलने का
कोई राह
सोच नहीं पा रहा मैं
फिर भी
मैं तो अपनी सोचों के अनुसार ही
सोचता हूँ...
दूसरा क्या सोचता है
मेरी सोचों के बारे में --
मैं ये नहीं सोचता
क्योंकि
मेरा तो मन ही
सोचों का मरघट है ...
मेरे मन के कोने-कोने में
दफ़न है
मेरे किसी न किसी
सोच की लाश !!!
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
सर जी इतना मत सोचा करो की सोच सोच कर ये भी भूल जाओ की क्या सोच रहे हो ...
जवाब देंहटाएंवो कहते है न चिंता चिता सामान है ..या ,,सोचे सोच न हॉट है
जो सोचे लाख बार
" मेरा तो मन ही
जवाब देंहटाएंसोचों का मरघट है ...
मेरे मन के कोने-कोने में
दफ़न है
मेरे किसी न किसी
सोच की लाश "
--- bahut sundar kavita, mujhe pasand aai..... sochon ka marghat sab ka man hota hai...koi maane ya n mane..