रविवार, 30 जनवरी 2011

कोशिश

तेरी याद दिल से निकालना चाहूँ तो निकलता ही नहीं            
तुझे देखने  को  दिल चाहे तो तू कहीं दिखता ही नहीं             
                 कई दफा सोचा समेत लूँ तुझे गजलों की आगोश में
                 क्या करूँ तेरा बेपनाह हुस्न गजलों में समाता ही नहीं
मुद्दतों गुज़र गए उसकी इंतज़ार-ए-लज्ज़त  में खोये 
दूर तलक राहों में उसका साया नज़र आता ही नहीं
                 मिन्नतें की, फरियादें की उस खफा शोख से लेकिन
                 क्या करूँ वो शख्स मेरी ओर नज़र उठाता ही नहीं
यारों ज़रा सोचो वो कैसा अज़ीम शक्की शख्स है
दिलोजान ले कर भी मुझे अपना मानता ही नहीं
                शोख अगर मैं जानता प्यासा ही लौटना पड़ेगा तो
                खुदा कसम तेरी महफ़िल में कदम रखता ही नहीं
तुझे  देखने को  दिल चाहे तो तू कहीं दिखता ही नहीं 
तेरी याद दिल से निकालना चाहूँ तो निकलता ही नहीं
                                                                   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 


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