तेरी याद दिल से निकालना चाहूँ तो निकलता ही नहीं
तुझे देखने को दिल चाहे तो तू कहीं दिखता ही नहीं
कई दफा सोचा समेत लूँ तुझे गजलों की आगोश में
क्या करूँ तेरा बेपनाह हुस्न गजलों में समाता ही नहीं
मुद्दतों गुज़र गए उसकी इंतज़ार-ए-लज्ज़त में खोये
दूर तलक राहों में उसका साया नज़र आता ही नहीं
मिन्नतें की, फरियादें की उस खफा शोख से लेकिन
क्या करूँ वो शख्स मेरी ओर नज़र उठाता ही नहीं
यारों ज़रा सोचो वो कैसा अज़ीम शक्की शख्स है
दिलोजान ले कर भी मुझे अपना मानता ही नहीं
शोख अगर मैं जानता प्यासा ही लौटना पड़ेगा तो
खुदा कसम तेरी महफ़िल में कदम रखता ही नहीं
तुझे देखने को दिल चाहे तो तू कहीं दिखता ही नहीं
तेरी याद दिल से निकालना चाहूँ तो निकलता ही नहीं
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
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