मैं जानना चाहता था
इतने दीर्घ अंतराल के बाद भी
मेरे दिल में कहीं तुम विद्यमान हो क्या ?
मैं अपने दिल से संबोधित हुआ
उत्तर की जगह सन्नाटा छाया रहा
विवश मैंने तुझे ढूँढने को
कोना-कोना दिल का खँगाल डाला
पर तेरा अस्तित्व कहीं रक्त-रक्तिम भी ना मिला
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ रह गया .
तभी मैंने अनुभव किया
कहीं से उभरता मद्धम-मद्धम स्वर
स्वरेन्द्रियों को सतर्क कर सुना,
ये स्वर था मेरे दिल का-
"मेरे गृह में उसके लिए किंचित भी जगह नहीं"
मैंने पूछा -
" तो तू उसके लिए बेचैन क्यूँ रहता है ?"
" बेचैन मैं नहीं तेरा शरीर रहता है-
उसके शरीर के लिए"
वास्तविकता समक्ष आते ही
मैं स्तंभित रह गया .
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
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