रविवार, 30 जनवरी 2011

फ़ुटबाल

जब भी मैंने सोचा
अपनी ज़िन्दगी के बारे में
फ़ुटबाल सरीखी ही नज़र आई
ज़िन्दगी मेरी
आश्रित है ठोकरों पर
खिलाड़ियों के पावों की
लुढ़क रही है ज़िन्दगी
इधर से उधर, उधर से इधर
क्रीड़ा स्थली में
टीमें आती हैं
खेलती हैं इससे
विजयी होती हैं
चली जाती हैं
छोड़ जाती हैं इसे
अन्य टीमों के निमित्त 
जाने कब मुक्ति मिलेगी
इस चर्या से
कदाचित तब
जब ये वायु रिक्त हो जायेगी
मेरी जगह
किसी अन्य की ज़िन्दगी
आ जाएगी
मैदान में 
                 --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

2 टिप्‍पणियां:

  1. घुंघुरू की तरह बजता ही रहा हम मई
    कभी इस ताल पर कबी उस ताल पर
    बजता ही रहा हम मै

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  2. रजनी जी, आप ने बिलकुल सटीक उदाहरण दिया ... साधु /अनुमोदन!

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