आँखों से छलकती थी
मदिरा प्यार की
दिल में मचलती थी
उत्तांग तरंगें प्यार की
बाहुपाशों में आवेश थी
अतृप्त वासना की
पलकों में होती थी
मूक निमंत्रण अभिसार की
संगमरमरी बदन को चाहत थी
सुपुष्ट गर्दभांग की
जुदाई एक पल भी न थी
स्वीकार्य जिन्हें मेरे शरीर की
जाने क्यों....
उन्हीं की आँखों में लेती हैं
करवटें
सागर अथाह नफरत की
असह्य है अब उनके तन को
स्पर्श
मेरी बेताब उँगलियों की
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
मदिरा प्यार की
दिल में मचलती थी
उत्तांग तरंगें प्यार की
बाहुपाशों में आवेश थी
अतृप्त वासना की
पलकों में होती थी
मूक निमंत्रण अभिसार की
संगमरमरी बदन को चाहत थी
सुपुष्ट गर्दभांग की
जुदाई एक पल भी न थी
स्वीकार्य जिन्हें मेरे शरीर की
जाने क्यों....
उन्हीं की आँखों में लेती हैं
करवटें
सागर अथाह नफरत की
असह्य है अब उनके तन को
स्पर्श
मेरी बेताब उँगलियों की
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
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