शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

प्रतिद्वंदी

अँखियाँ की कोरों पे आ
अश्रुबिंदु थम गए
जब जाते-जाते दूर मुझसे
अकस्मात् वो ठिठक गए
सोचा-
वापस आयेंगे वो पास मेरे
पर बोध भ्रम टूटा
पलकों की बाँध पुनः तोड़
अश्रुधारा
प्रवाहित हो चली प्रबल वेग से
जब वो बातें करने लगे
नयनों से नयन मिला
मुस्कुरा के
मेरे प्रतिद्वंदी से
पुकारने को तत्पर अधर
थरथरा के रह गए
बेबसी के आलम में रद-पुट
रद पंक्तियों में पिस के रह गए
                         --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


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