जिसे अँधेरे में भटकते
सहारा समझा था
जिस लाठी के सहारे टटोलते-टटोलते
अँधेरे से उजाले में
जाना चाहा था
वो स्वयं एक टूटा-झूठा
सहारा था
जो स्वयं मेरी सहायता लेने के निमित्त
मेरी संसर्ग में आया था
उजाले की झलक पाते ही उसने
मुझे अपने से सुदूर विलग
अँधेरे में झटक दिया
और
स्वयं जगमगाती मीनार की ओर
अग्रसर हो लिया
जिसकी चक्षुओं से अपने लिए मैंने
प्यार छलकते देखा था
उनके पीछे स्वार्थ का सागर
बल खा रहा था
जिसे
मैं समझ न पाया था
जिसे मैं सदैव से अपना समझता
आया वो तो
कभी मेरा रहा ही न था
मेरी बातों चाहतों इच्छाओं आवश्यकताओं
की महत्ता उसकी दृष्टि में
किंचित भी न थी
वो मुझे चलाना चाहता था
अपनी इच्छाओं के पथ पर
जिसका ह्रदय-सम्राट
स्वयं को समझता रहा
वो मुझे भिखारी समझ प्यार
देता रहा
मेरा प्यार चाहत विश्वास
आहत हो गया
उसके चेहरे से मिथ्या परदा
उठ गया
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें