शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

तुम्हे ही

जितना हो सकता है
प्यार तुम्हे कर रहा हूँ
तुम भरोसा करो न करो
प्रियतमे तुम्हारी है मर्ज़ी 
शिद्दत से चाहता हूँ तुम्हें
तुम मुझे मिलो न मिलो
खुदा की है मर्ज़ी
सच है मर्द हूँ मैं भी
मर्दों वाली बुराइयाँ हैं मुझमे भी
क्या करूँ
औरत तो हो नहीं सकता
तुम्हे यकीन दिला नहीं सकता
अर्धांगिनी !
अफ़सोस मेरे गीत मेरे ग़ज़ल
तुम्हारे दिल को छू नहीं पा रहे
मेरे भाव मेरे समर्पण
तुम्हे दिख नहीं रहे
तैयार हूँ मैं
किसी भी परीक्षण के लिए
परन्तु
असहाय हो गया मैं
रिक्त हो गया मैं
तुम्हारा विश्वास न पा कर
तुम्हारा प्यार न पा कर
अब तो होता है संकोच
प्यार के दो बोल बोलने में
भय होता है
मन को अभिव्यक्त करने में
क्या पता ये भी
फेंके जाएँ कूड़ेदान में
तदापि
मानो न मानो तुम
सच्चा प्यार करता हूँ
तुम्हे ही
दिलोदिमाग से चाहता हूँ
तुम्हे ही
जीवन भर चाहता हूँ संग-संग
तुम्हे ही

   --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव

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