गुरुवार, 21 जुलाई 2011

संभवतः

विरक्ति सी हो गई है
जीवन की हर वस्तु से
मन अशांत हो चला है
कष्टप्रद जीवन से
जाने क्यों 
पराया लगने लगा है
सब कुछ यहाँ 
जाने क्यों पतझड़ का मौसम
आ गया है
असमय ही यहाँ
क्या कोई उमंग
कोई ख़ुशी
नहीं रह सकती चिर
मेरे जीवन में
क्यों बारम्बार
शक्ल 
बदल जाया करते हैं 
चेहरों के दर्पण में 
ऐसे ही जलते रहना है 
संभवतः
मुझे मृत्यु-द्वार तक
पहुँचते हुए !
कोई साथी नहीं
कोई अपना नहीं
जो कुछ भी आएगा
यूँ ही आएगा
यूँ ही चला जायेगा 
प्रसन्नता का कोई भी 
आगमन
मुझे प्रसन्न नहीं कर सकेगा
सखाओं का कोई भी
प्रवचन
मुझे सांत्वना नहीं दे सकेगा
सोचता हूँ तो लगता है
जैसे
फटने के सन्निकट हैं
शिराएँ मेरे मस्तिष्क की
अब तो कामना है मुझे
उस जगत-पिता से
अपने मृत्यु की
आह ......
ये मृत्यु आती तो सही
मेरी चिर-सखी
बनती तो सही
संसार की इन झंझावातों से
मुक्ति दिलाती तो सही
कोई और नहीं 
पढ़ सका समझ सका
इस कवि-हृदय को
मृत्यु ही इसे
समझती तो सही 
                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 




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