कितनी पीड़ा देती हैं
सोचें
गर सोचो तो
बेचैन कर देती हैं
सोचें
सोचा करो जिसे
सोचे वो किसी और को
तो अपनी सोच में
भर जाते हैं
पीड़ा के रंग
दिल मायूस हो उठता है
देख सुन
उसकी उपेक्षात्मक ढंग
कभी
एकमात्र अपने लिए थी
जिसकी सोचें
अब
नहीं रहा
मेरे निमित्त कोई भाव
किसी और ने हटा कर
उन्हें
स्थापित कर लिया है
अपने भाव
अचम्भा होता है
देख कर कि
कभी
सब कुछ था जो अपना
आज
कुछ भी नहीं अपना
है कितना मुश्किल
किसी को ऐसे में
स्वयं को रख पाना
जिंदा
बैठा हो वो सामने
फिर भी
आभास हो है वो मुर्दा
---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
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