कितना दुखित है
मन मेरा आज
स्वयं के कृत्य पर
ग्लानि हो रही है
मुझे आज
स्वयं के धृत्य पर
स्वयं को गिरा लिया है
मैंने
अपनी ही दृष्टि में
क्या मुझ सा सडा हुआ
होगा कोई
इस ब्रह्म-सृष्टि में
आश्चर्य होता है मुझे
अपनी अभीप्साओं पर
शर्म आती है मुझे
अपनी चेष्टाओं पर
क्या इतनी आवश्यक
हो चुकी हैं
ये सब मेरे लिए
कि
छुद्रतम मानव की भाँति
किया व्यवहार
मैंने इनके लिए
क्यों किया मैंने ये सब
किसी की इच्छाओं के
विपरीत
क्या-क्या न कहा उसने
किस-किस तरह न किया
अपमानित उसने
वादों और कसमों की
चिता पर
लिटा ही तो दिया उसने
क्यों हुआ ये सब
किसलिए हुआ ये सब
किसके कारण हुआ ये सब
क्या इनके मूल में मेरी
ये घृणित इच्छाएँ
नहीं हैं
क्या इनके दमन का साहस
मुझमें नहीं है
पता नहीं क्यों कैसे
सर उठा लिया करती हैं
मेरे मन में
कुत्सित इच्छाएँ
इस तरह कि
आग सी लगा देती हैं
ये मेरे मन में
टूटन पैदा कर देती हैं
ये मेरे उसके सम्बन्ध में
क्यों होता है आश्चर्य मुझे
मृत देख कर स्वर्ण-मृग को
राम की तरह क्या मुझे नहीं पता
उस छलनामयी के पीछे
खो देना है अपने ही
" कुछ " को
क्यों नहीं रख पाता
वर्जनाओं में
अपने मन को-
क्यों अभीप्सा रहती है
सर्वदा उसे
अंकशायिनी बना लेने को
कितना कमजोर हूँ
कितना घृणित हूँ
कितना असयमित हूँ
समझ में आज
आ ही गया मुझे
क्यों नहीं इतना
सुदृढ़ निर्मित करता
मैं स्वयं को--
कि
एक क्या अनेकों ठोकरों से
असरहीन रख सकूँ
मैं स्वयं को
अब अपनी आंसुयें दिखाने से
भला क्या लाभ
टूटे हुए कांच से आइना
बनाने से क्या लाभ
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
मन मेरा आज
स्वयं के कृत्य पर
ग्लानि हो रही है
मुझे आज
स्वयं के धृत्य पर
स्वयं को गिरा लिया है
मैंने
अपनी ही दृष्टि में
क्या मुझ सा सडा हुआ
होगा कोई
इस ब्रह्म-सृष्टि में
आश्चर्य होता है मुझे
अपनी अभीप्साओं पर
शर्म आती है मुझे
अपनी चेष्टाओं पर
क्या इतनी आवश्यक
हो चुकी हैं
ये सब मेरे लिए
कि
छुद्रतम मानव की भाँति
किया व्यवहार
मैंने इनके लिए
क्यों किया मैंने ये सब
किसी की इच्छाओं के
विपरीत
क्या-क्या न कहा उसने
किस-किस तरह न किया
अपमानित उसने
वादों और कसमों की
चिता पर
लिटा ही तो दिया उसने
क्यों हुआ ये सब
किसलिए हुआ ये सब
किसके कारण हुआ ये सब
क्या इनके मूल में मेरी
ये घृणित इच्छाएँ
नहीं हैं
क्या इनके दमन का साहस
मुझमें नहीं है
पता नहीं क्यों कैसे
सर उठा लिया करती हैं
मेरे मन में
कुत्सित इच्छाएँ
इस तरह कि
आग सी लगा देती हैं
ये मेरे मन में
टूटन पैदा कर देती हैं
ये मेरे उसके सम्बन्ध में
क्यों होता है आश्चर्य मुझे
मृत देख कर स्वर्ण-मृग को
राम की तरह क्या मुझे नहीं पता
उस छलनामयी के पीछे
खो देना है अपने ही
" कुछ " को
क्यों नहीं रख पाता
वर्जनाओं में
अपने मन को-
क्यों अभीप्सा रहती है
सर्वदा उसे
अंकशायिनी बना लेने को
कितना कमजोर हूँ
कितना घृणित हूँ
कितना असयमित हूँ
समझ में आज
आ ही गया मुझे
क्यों नहीं इतना
सुदृढ़ निर्मित करता
मैं स्वयं को--
कि
एक क्या अनेकों ठोकरों से
असरहीन रख सकूँ
मैं स्वयं को
अब अपनी आंसुयें दिखाने से
भला क्या लाभ
टूटे हुए कांच से आइना
बनाने से क्या लाभ
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
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