शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

जीवन की डगर

आज भी
खड़ा हूँ वहीं मैं
खड़ा था जहाँ
कल मैं
जीवन की डगर पर चलते हुए
आ गया हूँ मैं
इस चौराहे पर
चतुर्दिश दिखते हैं
रास्ते ही रास्ते
परेशां हूँ, हैरान हूँ
मंजिल की तलाश में हूँ
कौन सा रास्ता है वो
जिस पर चल कर मैं
पहुँच सकूँगा मंजिल तक
सदा मैं इसी चौराहे से
करता हूँ प्रारंभ यात्रा
किसी एक रास्ते से
पा कर निमंत्रण मंजिल से
किन्तु,
वाह रे दुर्योग !!
किसी भी पथ पर
नहीं मिलती
मुझे मंजिल मेरी
अंततः
वापस यहीं आना होता है
मुझे
निराश, हताश, परिश्रान्त
क्या करूँ
थमा-बैठा भी तो नहीं जाता
मुझसे
सदा चलते रहने की आदत
जो है मुझे
सोचता हूँ
क्या दोष मेरा है जो
यथोचित डगर ढूँढ नहीं पाता
मैं ??
अथवा
दोषी ये पथ हैं जो
सदा भटकाते ही रहते हैं
मुझे ??
भला -
कब तक साथ देते रहेंगे
ये मेरे अंग मेरा
मेरी इन व्यर्थ की यात्राओं में
क्या कभी मैं अपनी मंजिल
तक पहुँच भी सकूँगा
क्या है ऐसी कोई डगर
जो पहुंचा सके मुझे
मेरे गंतव्य तक
ऐसा भी हुआ मेरे साथ
बारम्बार
पथ-मध्य ही समझ गया
कि ये राह नहीं है मेरे हित की
पर फिर भी चलता ही रहा
चलता ही रहा
मैं
क्योंकि
पहचानना चाहता था
अच्छी तरह इन रास्तों को
मैं
जिससे पुनः न धोखा खाऊ
उनसे मैं !!

          --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव

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