गुरुवार, 21 जुलाई 2011

अंत

संभवतः
आज अंत है ये
हमारे मिलन का
अंतिम यही छोर
है हमारे बंधन का
दूर मुझसे जब तुम
जा रहे थे
मुस्कुराते हुए
सच जानो
तुम्हे ही निर्लेप
तक रहा था
अंखियों में
प्यास लिए हुए
अकस्मात् यूँ होगा ये
मैंने कब सोचा था
छोड़ कर चले जाओगे
इतनी शांति से
ऐसा तो नहीं सोचा था
तुम्हारी मूकता
बोध करा रही है
मुझे मेरे अपराध की
चाहता हूँ कुछ तो सजा मिले
मुझे मेरे अपराध की
किन्तु कितने
निर्दय न्यायाधिकारी
हो तुम भी
छोड़ दिया मुझे मेरे हाल पर
दे कर सजा सोचने की
मेरे अपराध की
ह्रदय विह्वल है तुम्हारे लिए
कर्ण विकल हैं
तुम्हारे स्वर के लिए
कहो तो सखी --
क्या इतने पर भी तुम न आओगी
क्या इतनी निष्ठुर हो
अब मेरे निकट न आओगी
आओ तो सही
हिय-क्रंदन समझो तो सही
ह्रदय-सुर छेड़ो तो सही
बहुत कठोर हो तुम
जानता  हूँ मैं
तदापि
प्रेम है तुम्हे मुझसे
मानता हूँ मैं
प्रिये !!
क्या सच रूठ गई हो
मुझसे तुम
क्या सच नहीं मिलोगी
मुझसे तुम
मैं तुम्हे चाहता हूँ
कहूँ तुमसे ये यदि
अब मैं
अवश्य तुम्हे हँसी आएगी
सुन कर मेरी बात
पर सुन लो सच नहीं
कुछ
इसके बाद कोई और बात
              --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव

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