बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

खाक कर डालें

यही है गर ज़िन्दगी तो इसे खाक कर डालें
दुखी करती हैं गर सोचें तो उसे जला डालें

इस शहर का हर बाशिंदा बेवफा हो चला है
आओ इस शहर में हम कत्लेआम मचा डालें

ज़ेहन में ज़हर भर जाता है दुनिया की रवायतों से
अब क्यूँ न हम खुद को नीलकंठ बना डालें

किसी को क़द्र नहीं अब किसी के पाक ज़ज्बातों की
ऐ दोस्त आओ हम खुद को भी औरों जैसा ही बना डालें

किससे कहें ज़ज्बात-ए-दिल कोई सुनता ही नहीं
आओ ऐसा करें गजलों को हमराज बना डालें

दुखी करती हैं गर सोचें तो उसे जला डालें
यही है गर ज़िन्दगी तो इसे खाक कर डालें
                        ------- संजय स्वरुप श्रीवास्तव 











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