शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

पता नहीं

उतार दे जहर 
जब कोई किसी के दिल में
कैसे संभाले
भला कोई
स्वयं को ऐसी हालत में
कोई
भला क्या जाने
उसके दिल की हालत
जिसकी दुनिया
लुटाई
उसी की दुनिया ने
कोई ज़रा बैठ कर तो देखे
ग़मों की भीड़ में
ऐसे में गम 
बढ़ते ही जाते हैं
गम भी हमें
कितना सताते हैं
कितना रुलाते हैं
कितना छलते हैं
हर पल जी होता है
मर जाएँ मिट जाएँ
ये दुनियां ही छोड़ जाएँ
ये गम ये दुःख ये पीड़ा
क्यूँ होती है
संभवतः
स्वयं को सीमाओं में बांध लेना ही
कारण है इन सबके
तो फिर
ये सीमायें क्यूँ बंधी हैं
हम
इन सीमाओं से
क्यूँ बांध जाते हैं
सोचो कि
हम यदि ऐसा करेंगे तो
वो भी ऐसा करेगा
हम यदि ऐसा नहीं करेंगे तो
वो भी ऐसा नहीं करेगा
करना भी चाहेगा
तो
ईश्वर उसे रोकेगा
परन्तु स्वयं के न  करने पर भी
दूसरा कर जाता है
तो
कौन गलत है ?
न करने वाला ?
करने वाला ?
या
ऊपर वाला ?
हँसना, हँसना, हँसना ....
ही उत्तर है इसका
ऐसे में 
यदि चाहो तो भी
नहीं निकलते आँखों से आंसू
हरसंभव प्रयत्नों के बाद भी
निकलते भी हैं तो तेजाब की तरह
शायद दिल में उतरा ज़हर
आंसुओं को भी
तेजाब बना देता हो
लेकिन
प्यार में तो 
जैसे को तैसा 
जरुरी नहीं
मैं 
कैसे उसे प्यार करना 
छोड़ दूँ
वो तो मेरी ज़िन्दगी है
वो मेरी ज़रूरत है
वो कुछ भी करे मेरे संग
मैं तो
करता रहूँगा वफ़ा
उसके संग
स्वयं तो जलता रहूँगा
पर उसे
अपनी आँच से भी बचाए रखूँगा
पता नहीं वो
मेरे प्यार को अब भी
आदर दे सकेगी या नहीं
पता नहीं वो अब भी
मुझसे वफ़ा कर सकेगी या नहीं
या
यूँ ही मुझे उम्र भर
सजा दे-दे कर
सताती रहेगी
रुलाती रहेगी ....
                --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव


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