बहुत परेशां है आज !
मन
बहुत संत्रस्त है आज !
जब भी सुनता हूँ
जब भी सुनता हूँ
दुनिया की बातें
जब भी देखता हूँ
लोगों के आचरण
जाने क्यों
मन मेरा
क्षुब्ध हो उठता है
मुझे लगता है
जैसे
ये सब मेरे संग ही हो रहा है
ये सब मैं ही भुगत रहा हूँ
इन्सान
आखिर किधर जा रहा है
हमारी मर्यादाएँ
हमारी संस्कृति
कहाँ खोती जा रही हैं
क्यों नहीं
दर्शन होते अब
सच्चे प्रेम के ?
क्यों नहीं
मिलते हैं अब
निष्ठावान लोग ?
क्यों
ख़ुशी का आभाष करते हैं
दूसरों को धोखा दे कर ?
क्यों प्रसन्न होते हैं लोग
अपनी ही बातें
अपनी ही आदतें
अपनी तरह जी कर ?
क्यों नहीं जी पाते
लोग
दूसरों के लिए ?
क्यों नहीं समर्पित
हो पाते किसी एक के लिए ?
क्यों ऐसा होता है कि
भटकते रहते हैं लोग
एक डगर से दूसरी डगर ?
क्या मिलता है उन्हें
इस बेवफाई से ?
क्यों नहीं देते प्रतिफल
लोग
किसी की वफ़ा को वफ़ा से ?
क्यों नहीं चाहते लोग
जीवन में
किसी एक को ?
क्यों नहीं जीते मर जाते
लोग
किसी एक के निमित्त ?
क्यों नहीं रमाते लोग
किसी एक में
अपने चित्त ?
लोगों की बातें
लोगों की हरकतें
देख सोचता हूँ
क्या
सभी चरित्रहीन हो चुके हैं
क्या
सभी भावनाशून्य हो चुके हैं ?
एक ही समय
सम्बन्ध रखना
अनेकों के संग
क्या यही प्रेम है ?
जीवन में
हर किसी से हर कहीं
बना लेना शारीरिक सम्बन्ध
क्या यही प्रेम है ?
नहीं --
ये प्रेम नहीं है !
ये तो पराकाष्ठा है
चरित्रहीनता की
अन्तिमता है
नैतिक पतन की !
फिर
क्यों संज्ञा देते हैं लोग
इसे प्रेम की
क्यों कहते फिरते हैं
हर किसी से लोग
" आई लव यू "
क्यों भंग करते हैं
पावनता लोग प्रेम की ?
क्यों नहीं ढूंढ लेते लोग
कोई अन्य अलंकरण
अपने कृत्य की ?
मुझे तो लगता है
यहाँ
हर औरत हर पुरुष
वेश्या हो चला है
इनमें जो बचा है
वो इनके आगे
असहाय हो चला है
यहाँ अब कोई मूल्य नहीं
भावनाओं की, एकनिष्ठा की
प्रेम की, विचारों की, त्याग की
समर्पण की, चाहत की, ईमानदारी की
परन्तु
क्यों लिख रहा हूँ ये सब
मैं ?
दुनियां की बातों से क्यों
दुखी हो उठता हूँ मैं ?
क्यों इतना भावुक
हो उठता हूँ अधिकतर
मैं ?
मैंने तो जो चाहा था
वो पाया है
अपनी प्रियतमा में
सोचता हूँ
कितना भाग्यशाली हूँ
मैं ?
--- संजय स्वरुप श्रीवास्तव
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