बुधवार, 21 नवंबर 2012

"लौट चलें"

आओ लौट चलें हम उसी मुकाम पे 
सदियों पहले मिले थे जिस मुकाम पे

करने लगी हो काम दुष्ट जादूगरनी के
ख्वाबों की शहजादी लगी थी उस मुकाम पे

कितनी  झुलसन है बूढ़े जिस्म में    
तेरी गेसुओं के साए थे उस मुकाम पे 

ख्यालों में गुम रहते थे हम एक दूसरे के
दिल-ए-ख्वाहिश थी तुम जिस मुकाम पे 

आहें भरते थे देख-देख राहों में तुम्हे   
हमदम बनाने की चाह थी उस मुकाम पे

लज्ज़त-ए-इन्तज़ार कभी मिला ही नहीं 
वक़्त पे आती थी लिए बहार उस मुकाम पे

जिम्मेदारिओं का बोझ है ज़िन्दगी के जंगल में 
दीन-ओ-दुनिया की फिक्र न थी उस मुकाम पे

हर तरफ छाई है तेज धूप उदासियों की
मिलन की चाँदनी थी उस मुकाम पे

मंज़ूर नहीं सूरत देखना तुझ बेवफा की
मोहब्बत थी हममे भी उस मुकाम पे 

उकता चले हैं हम इस तल्ख़ सफ़र से 
नहीं था कोई गिला उस मुकाम पे  

सदियों पहले मिले थे जिस मुकाम पे
आओ लौट चलें हम उसी मुकाम पे !!!
                                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

सोमवार, 19 नवंबर 2012

जुदाई का मौसम

अश्क बरसते हैं आँखों से जुदाई के मौसम में
डसते हैं तन्हाई के नाग जुदाई के मौसम में

        पहरों बातें किया करते थे हम जहाँ-तहाँ
        हर जगह याद आई जुदाई के मौसम में

                सब्र का बाँध तोड़ देते हैं नाफर्मादार अश्क़     
                यादों की बाढ़ आई जुदाई के मौसम में

                         इश्क की चासनी में लिपटी उसकी वो मीठी बातें
                        प्रीत की बात याद आई जुदाई के मौसम में
 
                                 जाने वो मुझे याद करता होगा या नहीं
                                 लब पे नाम है उसका जुदाई के मौसम में 

                                          ज़रूर याद आता होऊँगा मैं उसे बाद दिखने के
                                           सुकून इसी ख्याल से आया जुदाई के मौसम में

डसते हैं तन्हाई के नाग जुदाई के मौसम में
अश्क बरसते हैं आँखों से जुदाई के मौसम में !!
                                              ---- संजय स्वरुप श्रीवास्तव  

रविवार, 18 नवंबर 2012

आखिरी मुलाकात


वो आखिरी मुलाकात याद है मुझे  
मोहब्बत की जब हुई शाम याद है मुझे

किस अदा से उसने कहा था बाय      
वो आखिरी लफ्ज़ उसका याद है मुझे

किसे पता था यही है सफ़र आखिरी  
जुदा होने का वो पल याद है मुझे

मिल न सके हम फिर कभी उससे  
या खुदा तेरा कहर याद है मुझे

तनहा कर गया है वो तन्हाई में
उसकी शोहबत का हर लम्हा याद है मुझे

उससे इक मुलाकात का तलबगार हूँ मैं  
तंगदिली ज़माने की याद है मुझे 

मोहब्बत की जब हुई शाम याद है मुझे
वो आखिरी मुलाकात याद है मुझे  
                           ---  संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

कल शब्


ख्वाब में देखा तुझे कल शब्
ख्वाब में भी तकता रहा कल शब्
                  तू आकर चला गई तीर-ए-अदा
                  सुकून को तरसता रहा कल शब्
देखा तो पर बात हमारी न हो सकी
ख्वाब में भी तरस गया बात को कल शब्
                 दिखी तुम पिंजड़े में कैद बुलबुल की मानिंद  
                 ख्वाब में भी पहरे देखा कल शब्
देख के सोचा पूरी होंगी आज आरजुएँ 
खून-ए-आरज़ू टपकता रहा कल शब्
                 खिला गुल बनाना चाह था लेकिन
                 छू भी न सका मासूम कली कल शब्
ख्वाब में भी तकता रहा कल शब्
ख्वाब में देखा तुझे कल शब्  !!!  
                              ___ संजय स्वरुप श्रीवास्तव 

शनिवार, 17 नवंबर 2012

"छोटी सी मुलाकात अपनी"


छोटी सी मुलाकात अपनी !
थोड़ी सी मधुर बात अपनी !!
           आये तुम मिले तुम  
           प्रेम किये तुम चल दिए तुम 
           बस इतनी सी कथा अपनी 
मिल कर प्यार किये हमने
दो-चार प्रीत की बात किये हमने 
दो पहर संग-संग बैठ लिए हमने
अधरों, कपोलों,अँखियों पर
कानों की लौ, ग्रीवा औ' हथेलिओं पर
कुछ चुम्बन धर लिए हमने
बांहों में सिमटने के मज़े लिए हमने
पति-पत्नी सा सुख लिए हमने
           याद तो आती होंगी तुम्हे भी वो
           हाथों में हाथों का स्पंदन
           सांसों में साँसों का घुलन
           दिल से मिले दिल की धड़कन
           होंठों से होंठों की छुवन   
           कानों पे दांतों की चुभन 
           जिव्हा से वो जिव्हा-चुसन  
याद तो मुझे भी आती है वो
अपने हाथों आइसक्रीम खिलाना तेरा
मेंहदी रची सलोनी हथेलियाँ दिखाना तेरा
रेस्तरां में ही निमंत्रण चुम्बन का देना तेरा
जाते-जाते अदा से बाय करना तेरा
कमर में डाल कर बांहें बैठना तेरा
स्वयं को सुन्दर न मानने का हठ तेरा
           यही है सौगात मोहब्बत की अपनी
           छोटी सी मुलाकात अपनी
संभव नहीं मिलना अब हमारा  
लग गया है प्यार पे पहरा
शिकायत नहीं कोई मुझे तुमसे  
तुम हो मजबूर
मैं भी हूँ मजबूर
चलो चलते हैं अब
एक दूसरे से दूर
तुम अपनी डगर
मैं अपनी डगर
फिर कभी मिले जो हम
फिर प्यार करेंगे हम
अधूरी रह गईं जो इच्छाएं
अतृप्त रह गईं जो तमन्नाएँ 
करेंगे उन्हें पूरा हम
            परन्तु नहीं मिल सके यदि हम
            देखेंगे जब भी पलट कर हम
            एक दूसरे को याद करेंगे हम
           इन दिनों की मधुर यादें
           यौवन के दर्पण में निहारेंगे हम
           गीत जो लिखे हैं हमने प्रीत के
           दिल ही दिल में गुनगुनायेंगे हम
क्या हुआ गर हुई
थोड़ी सी मधुर बात अपनी
छोटी सी मुलाकात अपनी !!
                        ---  संजय स्वरुप श्रीवास्तव 


बात नहीं होती


देख तो लेता हूँ पर बात नहीं होती
अब तो  रूबरू मुलाकात नहीं होती

लग गई हैं बंदिशें उस पे इस कदर   
दिल से दिल की बात नहीं होती 

अजीब तकदीर है मोहब्बत की भी 
लगते ही पहरे बात नहीं होती

ज़िन्दगी तल्ख़ हो चली है उस बिन  
कोशिशों बाद भी बात नहीं होती

कितने तंगदिल हैं दुनियावाले 
सीने में उनके ज़ज्बात नहीं होती

मिलती हैं पल भर को हमारी नज़रें  
इक लम्हे में तो सदियों की बात नहीं होती

जाने कैसा है वो उसका मिजाज़  
जानूँ  कैसे जब बात नहीं होती

आरज़ू है देखता रहूँ उस हसीं शै को
क्या हुआ गर कोई बात नहीं होती 

फोन की हर सदा पे सोचूँ  वही होगी
क्या करूँ फोन पे भी बात नहीं होती

दे कर उसे फिर छीन लिया मुझसे
या रब ये तो कोई सौगात नहीं होती

अब तो  रूबरू मुलाकात नहीं होती
देख तो लेता हूँ पर बात नहीं होती
                            --- संजय स्वरुप श्रीवास्तव