यही है गर ज़िन्दगी तो इसे खाक कर डालें
दुखी करती हैं गर सोचें तो उसे जला डालें
इस शहर का हर बाशिंदा बेवफा हो चला है
आओ इस शहर में हम कत्लेआम मचा डालें
ज़ेहन में ज़हर भर जाता है दुनिया की रवायतों से
अब क्यूँ न हम खुद को नीलकंठ बना डालें
किसी को क़द्र नहीं अब किसी के पाक ज़ज्बातों की
ऐ दोस्त आओ हम खुद को भी औरों जैसा ही बना डालें
किससे कहें ज़ज्बात-ए-दिल कोई सुनता ही नहीं
आओ ऐसा करें गजलों को हमराज बना डालें
दुखी करती हैं गर सोचें तो उसे जला डालें
यही है गर ज़िन्दगी तो इसे खाक कर डालें
------- संजय स्वरुप श्रीवास्तव